दोहा
सहज शुद्ध ज्ञायक अमल, नित्यमुक्त भगवान |
शोभित निज अनुभूति युत, परमानन्दमय जान || 1 ||
चौपाई
जय जय चिदानन्द भगवान, ध्येयरूप ध्याऊँ अम्लान ||
जय जय सहज चतुष्टयवन्त, शाश्वत प्रभु अंतर विलसंत || 2 ||
निष्कलंक निर्द्वंद्व स्वरूप, निर्विकल्प चिद्रूप अनूप ||
बिन्मूरति चिन्मूरति आप, जाकी धुन में पुण्य न पाप || 3 ||
जय जय परम धरम दातार, जय जय बंध विनाशानहार |
मुक्तिदशा प्रगटावनहार, सहज अकर्ता जाननहार || 4 ||
ग्रहण-त्याग का जहाँ न काम, सहज पूर्ण नित आतमराम |
जय जय परमब्रह्म निष्काम, प्रगटे ब्रहचर्य सुखधाम || 5 ||
आधि व्याधि उपाधि विहीन, सहज समाधिस्वरूप प्रवीन |
शाश्वत तीर्थरूप अविकार, सहजपने ही तारणहार || 6 ||
अनन्तज्ञान में भी सु अनन्त, महिमा का दीखे नहिं अंत |
दर्शन तें उपजे आनंद, प्रभु अविनाशी अमृतचन्द्र || 7 ||
ज्ञान सुधारस पिये जु कोय, अजर अमर पद पावे सोय |
नित्य निरंजन परम पवित्र, स्वानुभव गोचर सहज विचित्र || 8 ||
लोकोत्तम ध्रुव मंगल रूप, अनन्य शरण आराध्य स्वरुप |
जय जय सहज तृप्त निर्दोष, गुण अनंतमय माणिक कोष || 9 ||
यद्यपि कर्म संयोग अनादि, हो रागादिक हर्ष-विषाद |
भ्रमता फिरे चतुर्गति माँहिं, लहे एक क्षण सात नाहिं || 10 ||
वर्ते तदपि सदा निर्बंध, सहज ज्ञानमय ज्योति अमंद |
निष्कल निर्विकार अभिराम, एकरूप नित अतामराम || 11 ||
नाहीं उपजे नाहीं विनशे, बंध मुक्ति को कदा न परसे |
भिन्न सदैव रहें ये स्वांग, ज्ञायक तो ज्ञायक ही जान || 12 ||
परम पारिणामिक अविकार, धीर वीर गंभीर उदार |
स्वयंसिद्ध शाश्वत परमात्म, अद्भुत प्रभुतामय शुद्धात्म || 13 ||
द्रव्यदृष्टि से प्रत्यक्ष देख, उपज्यो उर आनन्द विशेष |
मिटी भ्रान्ति प्रगटी सुख शान्ति, निज में ही पाई विश्रान्ति || 14 ||
मिथ्या कर्तृत्व भाव पलाय, राग-द्वेष सब गये विलाय |
सहजहिं जाननहार जनाय, अद्भुत चिद्विलास विलसाय || 15 ||
दोहा
स्वतः स्वयं में तृप्त हूँ, विनशें सर्व विभाव |
रहूँ सहज निर्ग्रन्थ नित, भाऊँ शुद्ध स्वभाव || 16 ||
Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’