श्री सिद्ध पूजन / Shri Siddh Pujan

सिद्ध पूजन

( श्री युगलजी कृत).

(दोहा)

(हरिगीतिका)

निज वज्र पौरुष से प्रभो! अन्तर - कलुष सब हर लिये ।
प्रांजल प्रदेश - प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये ।।
सर्वोच्च हो अत एव बसते, लोक के उस शिखर रे!
तुम को हृदय में स्थाप, मणि-मुक्ता चरण को चूमते ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट्।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।

( वीरछन्द)

शुद्धातम-सा परिशुद्ध प्रभो! यह निर्मल नीर चरण लाया ।
मैं पीड़ित निर्मम ममता से, अब इसका अंतिम दिन आया ||
तुम तो प्रभु अंतर्लीन हुए, तोड़े कृत्रिम सम्बन्ध सभी ।
मेरे जीवन - धन तुमको पा, मेरी पहली अनुभूति जगी ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम्…

मेरे चैतन्य - सदन में प्रभु ! धू-धू क्रोधानल जलता है।
अज्ञान - अमा’ के अंचल में, जो छिपकर पल-पल पलता है ।।
प्रभु! जहाँ क्रोध का स्पर्श नहीं, तुम बसो मलय की महकों में ।
मैं इसीलिए मलयज लाया, क्रोधासुर भागे पलकों में ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनम्…

अधिपति प्रभु! धवल भवन के हो, और धवल तुम्हारा अन्तस्तल ।
अंतर के क्षत सब विक्षत कर, उभरा स्वर्णिम सौंदर्य विमल ||
मैं महामान से क्षत-विक्षत, हँ खंड-खंड लोकांत-विभो ।
मेरे मिट्टी के जीवन में, प्रभु! अक्षत की गरिमा भर दो ||

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्…

चैतन्य - सुरभि की पुष्पवाटिका, में विहार नित करते हो ।
माया की छाया रंच नहीं, हर बिन्दु सुधा की पीते हो ।।
निष्काम प्रवाहित हर हिलोर, क्या काम काम की ज्वाला से ।
प्रत्येक प्रदेश प्रमत्त हुआ, पाताल - मधु मधुशाला’ से।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पम्…

यह क्षुधा देह का धर्म प्रभो ! इसकी पहिचान कभी न हुई ।
हर पल तन में ही तन्मयता, क्षुत् - तृष्णा अविरल पीन’ हुई ||
आक्रमण क्षुधा का सह्य नहीं, अतएव लिये हैं व्यंजन ये ।
सत्वर तृष्णा को तोड़ प्रभो! लो, हम आनंद - भवन पहुँचे ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम्…

विज्ञान नगर के वैज्ञानिक, तेरी प्रयोगशाला विस्मय ।
कैवल्य-कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव ।।
पर तुम तो उससे अति विरक्त, नित निरखा करते निज निधियाँ ।
अतएव प्रतीक प्रदीप लिये, मैं मना रहा दीपावलियाँ ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम्…

तेरा प्रासाद महकता प्रभु! अति दिव्य दशांगी धूपों से ।
अतएव निकट नहिं आ पाते, कर्मों के कीट-पतंग अरे ।।
यह धूप सुरभि-निर्झरणी, मेरा पर्यावरण विशुद्ध हुआ ।
छक गया योग-निद्रा॰ में प्रभु ! सर्वांग अमी’ है बरस रहा ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपम्…

निज लीन परम स्वाधीन बसो, प्रभु! तुम सुरम्य शिव-नगरी में ।
प्रति पल बरसात गगन’ से हो, रसपान करो शिव-गगरी में ।।
ये सुरतरुओं के फल साक्षी, यह भव - संतति का अंतिम क्षण ।
प्रभु ! मेरे मंडप में आओ, है आज मुक्ति का उद्घाटन |

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् .

तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता- मोदक से सघन हुए ।
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूति अनुभूति लिये ।।
हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर - वैभव की मस्ती ।
है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती ।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

जयमाला

(दोहा)

चिन्मय हो, चिद्रूप प्रभु ! ज्ञाता मात्र चिदेश |
शोध-प्रबंध चिदात्म के, स्रष्टा तुम ही एक।।

जगाया तुमने कितनी बार ! हुआ नहिं चिर- निद्रा का अन्त ।
मदिर सम्मोहन ममता का, अरे! बेचेत पड़ा मैं सन्त ।।

घोर तम छाया चारों ओर, नहीं निज सत्ता की पहिचान ।
निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ।।

ज्ञान की प्रति पल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम ।
अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम ||

किन्तु पर सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर - मर्कट - सी गहल अनन्त ।
अरे! पाकर खोया भगवान, न देखा मैंने कभी बसंत ।।

नहीं देखा निज शाश्वत देव, रही क्षणिका पर्यय की प्रीति ।
क्षम्य कैसे हों ये अपराध ? प्रकृति की यही सनातन रीति ।।

अतः जड़- कर्मों की जंजीर, पड़ी मेरे सर्वात्म प्रदेश ।
और फिर नरक-निगोदों बीच, हुए सब निर्णय हे सर्वेश ||

घटा घन विपदा की बरसी, कि टूटी शंपा मेरे शीश ।
नरक में पारद-सा तन टूक, निगोदों मध्य अनंती मीच ।।

करें क्या स्वर्ग सुखों की बात, वहाँ की कैसी अद्भुत टेव!
अंत में बिलखे छह-छह मास, कहें हम कैसे उसको देव!

दशा चारों गति की दयनीय, दया का किन्तु न यहाँ विधान।
शरण जो अपराधी को दे, अरे! अपराधी वह भगवान ।।

“अरे ! मिट्टी की काया बीच, महकता चिन्मय भिन्न अतीव।
शुभाशुभ की जड़ता को दूर, पराया ज्ञान वहाँ परकीय ।।

अहो ‘चित्’ परम अकर्त्तानाथ, अरे ! वह निष्क्रिय तत्त्व विशेष ।
अपरिमित अक्षय वैभव-कोष”, सभी ज्ञानी का यह परिवेश’ ||

बताये मर्म अरे! यह कौन, तुम्हारे बिन वैदेही नाथ ?
विधाता शिव-पथ के तुम एक, पड़ा मैं तस्कर दल के हाथ ।।

किया तुमने जीवन का शिल्प, खिरे सब मोहकर्म और गात ।
तुम्हारा पौरुष झंझावात , झड़ गये पीले-पीले पात ।।

नहीं प्रज्ञा - आवर्त्तन’ शेष, हुए सब आवागमन अशेष ।
अरे प्रभु! चिर-समाधि में लीन, एक में बसते आप अनेक ||

तुम्हारा चित्- प्रकाश कैवल्य, कहें तुम ज्ञायक लोकालोक ।
अहो ! बस ज्ञान जहाँ हो लीन, वही है ज्ञेय, वही है भोग ।।

योग-चांचल्य हुआ अवरुद्ध, सकल चैतन्य निकल निष्कंप ।
अरे ! ओ योगरहित योगीश ! रहो यों काल अनंतानंत ।।

जीव कारण-परमात्म त्रिकाल, वही है अंतस्तत्त्व अखंड ।
तुम्हें प्रभु! रहा वही अवलंब, कार्य परमात्म हुए निर्बन्ध ।।

अहो ! निखरा कांचन चैतन्य, खिले सब आठों कमल’ पुनीत ।
अतीन्द्रिय सौख्य चिरंतन भोग, करो तुम धवलमहल के बीच ।।

उछलता मेरा पौरुष आज, त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ!
अरे! तेरी सुख-शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम प्रभात ।।

प्रभो! बीती विभावरी— आज, हुआ अरुणोदय शीतल छाँव ।
झूमते शांति - लता के कुंज, चलें प्रभु ! अब अपने उस गाँव ।।

ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

(दोहा)

चिर-विलास चिद्ब्रह्म में, चिर- निमग्न भगवंत |
द्रव्य - भाव स्तुति से प्रभो!, वंदन तुम्हें अनंत ।।

(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)

2 Likes