श्री शान्तिनाथ जिनपूजन
(गीतिका)
चक्रवर्ती पाँचवें अरु कामदेव सु बारहवें ।
इन्द्रादि से पूजित हुए, तीर्थेश जिनवर सोलहवें ॥
तिहुँ लोक में कल्याणमय, निर्ग्रन्थ मारग आपका।
बहुमान से पूजन निमित्त, स्वरूप चिन्तें आपका ॥
(सोरठा)
चरणों शीस नवाय, भक्तिभाव से पूजते
प्रासुक द्रव्य सुहाय, उपजे परमानन्द प्रभु ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्वाननम् ।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
(बसन्ततिलका)
प्रभु के प्रसाद अपना ध्रुवरूप जाना,
जन्मादि दोष नाशें हो आत्मध्याना
श्री शान्तिनाथ प्रभु की पूजा रचाऊँ,
सुख शान्ति सहज स्वामी निज माँहिं पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु - विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
जाना स्वरूप शीतल उद्योतमाना,
भव ताप सर्व नाशे हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।
अक्षय विभव प्रभु सम निज माँहिं जाना,
अक्षय स्वपद सु पाऊँ हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
निष्काम ब्रह्मरूपं निज आत्म जाना,
दुर्दान्त काम नाशे हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
परिपूर्ण तृप्त ज्ञाता निजभाव जाना,
नाशें क्षुधादि क्षण में हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
निर्मोह ज्ञानमय ज्ञायक रूप जाना,
कैवल्य सहज प्रगटे हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
निष्कर्म निर्विकारी चिद्रूप जाना,
भव हेतु कर्म नाशें हो आत्मध्याना ।। श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
निर्बन्ध मुक्त अपना शुद्धात्म जाना,
प्रगटे सु मोक्ष सुखमय हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
अविचल अनर्घ्य प्रभुतामय रूप जाना,
विलसे अनर्घ्य आनन्द हो आत्मध्याना ॥ श्री शान्ति… ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
पंचकल्याणक अर्घ्य
(दोहा)
भादौं कृष्णा सप्तमी, तजि सर्वार्थ विमान
ऐरा माँ के गर्भ में आए श्री भगवान ।।
ॐ ह्रीं भादवकृष्णासप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ - जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।
कृष्णा जेठ चतुर्दशी, गजपुर जन्मे ईश
करि अभिषेक सुमेरू पर इन्द्र झुकावें शीश ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा
सारभूत निर्ग्रन्थ पद, जगत असार विचार |
कृष्णा जेठ चतुर्दशी, दीक्षा ली हितकार ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा
आत्मध्यान में नशि गये, घातिकर्म दुखदान ।
पौष शुक्ल दशमी दिना प्रगटो केवलज्ञान ॥
ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा
जेठ कृष्ण चौदशि दिना, भये सिद्ध भगवान ।
भाव सहित प्रभु पूजते होवे सुख अम्लान ॥
ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशान्तिनाथ - जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. ।
जयमाला
(चौपाई)
जय जय शान्तिनाथ जिनराजा, गाऊँ जयमाला सुखकाजा जिनवर धर्म से मंगलकारी, आनन्दकारी भवदधितारी ॥ सु
(लावनी)
प्रभु ! शान्तिनाथ लख शान्त स्वरूप तुम्हारा
चित शान्त हुआ मैं जाना जाननहारा । टेक ||
हे वीतराग सर्वज्ञ परम उपकारी,
अद्भुत महिमा मैंने प्रत्यक्ष निहारी।
जो द्रव्य और गुण पर्यय से प्रभु जानें,
वे जानें आत्मस्वरूप मोह को हानें।
विनशें भवबन्धन हो सुख अपरम्पारा ॥ चित शान्त हुआ मैं… ॥ १ ॥
हे देव! क्रोध बिन कर्म शत्रु किम मारा?
बिन राग भव्यजीवों को कैसे तारा?
निर्ग्रन्थ अकिंचन हो त्रिलोक के स्वामी,
हो निजानन्दरस भोगी योगी नामी ॥
अद्भुत, निर्मल है सहज चरित्र तुम्हारा ॥ चित शान्त हुआ मैं…॥२॥
सर्वार्थसिद्धि से आ परमार्थ सु साधा,
हो कामदेव निष्काम तत्त्व आराधा ।
तजि चक्र सुदर्शन, धर्मचक्र को पाया,
कल्याणमयी जिनधर्मतीर्थ प्रगटाया ॥
अनुपम प्रभुता माहात्म्य विश्व से न्यारा ॥ चित शांत हुआ मैं…॥३॥
गुणगान करूँ हे नाथ आपका कैसे?
हे ज्ञानमूर्ति! हो आप आप ही जैसे।
हो निर्विकल्प निर्ग्रन्थ निजातम ध्याऊँ,
परभावशून्य शिवरूप परमपद पाऊँ ।
अद्वैत नमन हो प्रभो सहज अविकारा॥ चित शान्त हुआ मैं… ।।४।।
कुछ रहा न भेद विकल्प पूज्य पूजक का,
उपजे न द्वन्द दुःखरूप साध्य-साधक का
ज्ञाता हूँ ज्ञातारूप असंग रहूँगा,
पर की न आस निज में ही तृप्त रहूँगा
स्वभाव स्वयं को होवे मंगलकारा ॥ चित शान्त हुआ मैं… ॥५॥
(घत्ता)
जय शान्ति जिनेन्द्रं, आनन्दकन्दं, नाथ निरंजन कुमतिहरा
जो प्रभु गुणगावें, पाप मिटावें पावें आतमज्ञान वरा ।।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा
भक्तिभाव से जो जजें, जिनवर चरण पुनीत
वे रत्नत्रय प्रगटकर, लहें मुक्ति नवनीत ॥
॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥
रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह