श्री सम्भवनाथ स्तुति | Shri Sambhavnath Stuti

ज्ञानमात्र प्रभु हूँ यह श्रद्धा, अनुभव थिरता रत्नत्रय |
अब पर्यय में प्रगटी प्रभुता, हुआ सकल कर्मों का क्षय || १ ||

तीन लोक में परमपूज्य, देवाधिदेव फिर कहलाये |
निरबाधित आनंद सहज ही, प्रतिक्षण अनुभव में आये || २ ||

सम्यक हुआ परिणमन प्रभुवर, वंदनीय हे सम्भवजिन |
मुक्ति मार्ग निज में ही संभव, मोह- द्धेष- रागादिक बिन || ३ ||

आत्मविमुख रह कोटि उपायों, से भी शांति न पायी है |
मैं करुँ वंदना सम्भवजिन, निज में ही शांति दिखाई है || ४ ||

  • बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’
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