मुक्ति की युक्ति निज में ही, हे सुविधिनाथ दर्शायी है |
निज पूर्ण स्वाभाव निरख प्रभुवर, कर्तृत्व बुद्धि विनशाई है || १ ||
सम्यक - प्रतीति अनुभव - थिरता, निज परम भाव में हो जावे |
परभावों से निवृत्ति हो, अरु निज में ही थिरता आवे || २ ||
परमातम खुद ही कहलाये, अरु अनंत चतुष्टय प्रगटावे |
तब अल्पकाल में कर्म रहित, अविनाशी शिवपद को पावे || ३ ||
हे शिवस्वरूप शिवकार अहो ! निजज्ञायक तत्व दिखाया है |
वंदन है पुष्पदंतस्वामी, अनुपम आनंद सु - पाया है || ४ ||
- बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’