श्री पुष्पदंत जिनपूजन । Shri Pushpdant Nath Bhagwan Puja

श्री पुष्पदंत जिनपूजन

             (गीतिका)

अक्षय सु आतम निधि बताई, प्राप्ति की भी विधि प्रभो ।
है सार्थक यह नाम भी जिन, सुविधिनाथ कहा अहो ॥
सौभाग्य से अवसर मिला, पूजा करूँ अति चाव से
हे पुष्पदंत जिनेन्द्र ! मैं छू विकारी भाव से ॥

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतार अवतर संवौषट् आह्वाननं ।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं ।

               (छन्द-अडिल्ल)

निर्मल जल ले, पूजूँ प्रभु हरषाय के, जन्म जरा मृत नाशूं निजपद ध्याय के ।
पुष्पदंत जिनराज करूँ गुणगान मैं, होय प्रतिष्ठित सहज ज्ञान ही ज्ञान में ।।
ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा ।

भक्ति भावमय चन्दन ले पूजा करूँ।
नाशे ताप कषायों का समता धरूं । पुष्पदंत ॥

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा ।

पूजूँ निर्मल अक्षत से जिननाथ जी।
पाऊँ उत्तम धर्मी जन का साथ जी। पुष्पदंत ॥

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्ताये अक्षतं नि. स्वाहा

दिव्य पुष्प ले भाऊँ जिनवर भावना
विषयों की हो स्वप्न माँहिं भी चाह ना ।। पुष्पदंत… ॥

ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा

झूठे नैवेद्य लख, निस्सार तजूँ प्रभो ।
पीऊँ सन्तोषामृत तुम सम ही विभो । पुष्पदंत… ॥

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा।

सहज रतन रुचि दीप उजालू देव जी
मोह महातम नशे सहज स्वयमेव जी ।।
पुष्पदंत जिनराज करूँ गुणगान मैं,
होय प्रतिष्ठित सहज ज्ञान ही ज्ञान में ।।

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा ।

आर्त- रौद्र तज आत्मध्यान धारू अहो।
जरें कर्म फल निजगुण विस्तारूं प्रभो ॥ पुष्पदंत… ॥

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं नि. स्वाहा ।

पुण्य पाप फल सकल जिनेश्वर त्यागकर ।
पाऊँ जिनवर मुक्तिफल आनन्दकर ।। पुष्पदंत ।।

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

शुद्ध भावमय अर्घ्य धरूँ आनन्द से ।
पद अनर्घ्य हो बचूँ कर्म के फन्द से || पुष्पदंत… |

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाधजिनेन्द्राय अवपदप्राप्तये अर्घ्य नि. स्वाहा।

               पंचकल्याणक अर्घ्य

                     (चौपाई) 

नवमी फागुन वदी सुहाई, गर्भ कल्याण भयो सुखदाई ।
सेवे मात देवि सुखकारी, पूजूं जिनवर मंगलकारी ॥

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णनवम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा

मगसिर सुदि एक दिन आया, इन्द्र जन्मकल्याण मनाया। उत्सव नाना भाँति रचाई, मैं भी पूजूं त्रिभुवन राई ।

ॐ ह्रीं माघशुक्लप्रतिपदायां जन्ममंगलमंडिताय श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

इक दिन उल्कापात हुआ था, अन्तर में वैराग्य हुआ था।
भाव भावना दीक्षा धारी, मगसिर सुदि एकम् सुखकारी ॥

ॐ ह्रीं माघशुक्लप्रतिपदायां तपोमंगलमंडिताय श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा।

आत्मध्यान प्रभु ऐसा धारा, नाशे घाति कर्म दुखकारा ।
कार्तिक कृष्णा द्वितीया स्वामी, धर्मतीर्थ प्रकटा अभिरामी ॥

ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णद्वितीयायां ज्ञानमंगलमंडिताय श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा।

सुप्रभ टोंक सम्मेद महाना, आप पधारे अविचल थाना ।
भादों सुदि अष्टमि सुखकारा, पूजत होवे हर्ष अपारा।।

ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्ल अष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्री पुष्पदंतजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

जयमाला

                  (दोहा)

तीर्थंकर नवमें प्रभो ! अद्भुत महिमावंत
शाश्वत् धर्म बताइया, रहे सदा जयवन्त ॥

                  (छन्द-पद्धरी)

हे पुष्पदंत हे सुविधिनाथ !! दर्शन पाकर हुआ सनाथ ।
जिनराज भजूं निजभाव सजू, परमानंदमय चिद्रूप भजूँ ॥
हे तेजपुंज हे धर्ममूर्ति ! हे ज्ञानपुंज चैतन्यमूर्ति ।
मंगलमय लोकोत्तम स्वरूप, भविजन को तुम ही शरणरूप ॥
नाशे कर्माश्रित सब विभाव, प्रगटे स्वाश्रित आतम स्वभाव।
तुम दिव्यध्वनि सुन जगे ज्ञान, आतम अनात्म की हो पिछान ॥
पर्यायदृष्टि छूटे जिनन्द, प्रगटे अनुभव रस दुख निकन्द ।
दुःख कारण रागादिक दिखाय, पुरुषार्थ तिन्हें नाशन जगाय ॥
वैराग्य भावना सहज होय, क्षण-क्षण में निज शुद्धात्म जोय।
निर्ग्रन्थ मार्ग में बड़े जाय, तुम सम अक्षय पदवी सुपाय ॥
यो मुक्तिमार्ग के निमित्त आप, भव्यों के नाशो प्रभु संताप
हे परम धरम दातार देव, चरणों में शीश नमें स्वयमेव ॥
जो पूजे सो जगपूज्य होय, आपद ताको आवे न कोय ।
तुम ढिग वांछा ही प्रभु नशाय, निज में ही अद्भुत तृप्ति पाय ।। इन्द्रादिक पूजें चरण आन, अद्भुत अतिशय जिनवर महान ।
ऐसी प्रभुता मैं भी सु पाय तिष्ठूं जिनेश तुम पास आय ॥

ॐ ह्रीं श्री पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

          (सोरठा)

पुष्पदंत भगवान, तीन लोक चूड़ामणि।
होय सकल कल्याण, जिन पूजा परसादतें ॥

पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥

रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह