पार्श्व प्रभो तव दर्शन से, मम मिथ्यादृष्टि पलाई।
मेरा पार्श्व प्रभो अंतर में, देता मुझे दिखाई।।
तेरे जीवन की समता, आदर्श रहे नित मेरी।
तेरे सम निज में दृढ़ता ही, मेटे भव-भव फेरी।।
संकट त्राता आनंद दाता, ज्ञायक दृष्टि सु पाई ।।1।।
बैर क्षोभ वश होय कमठ, उपसर्ग किया भयकारी।
नहिं अंतर तक पहुँच सका, प्रभु अंतर गुप्ति धारी।।
ज्ञेयमात्र ही रहा कमठ, किंचित् न शत्रुता आई ।।2।।
आ उपसर्ग धरणेन्द्र निवारा, पद्मा मंगल गाये।
धन्य धन्य समवृत्तिधारी, किंचित् नहिं हरषाये ।।
वीतराग प्रभु घातिकर्म तज, केवल लक्ष्मी पाई ।।3।।
आत्म साधना देख कमठ भी, प्रभु चरणों में नत था।
आत्मबोध पाकर वह भी तो, निज में हुआ विनत था।।
दूर हुए दुर्भाव विकारी, सम्यक् निधि उपजाई ।।4।।
निज में ही एकत्व सत्य, शिव सुंदर संकटहारी।
दिव्य तत्त्व दर्शाती प्रभुवर, मुद्रा दिव्य तुम्हारी ।।
दर्पण से मुख त्यों तुमसे, निज निधि मैंने लख पाई ।।5।।
ज्ञान मात्र निज आत्मभाव, मैं शक्ति अनंत उछलती।
रागादिक मल बाहर भागें, शांति किलोलें करती ।।
शांति सिंधु में मगन होय मैं, नमन करूँ सुखदाई ।।6।। मेरा..
सोर्स : जिनेन्द्र आराधना संग्रह