श्री पार्श्वनाथ पूजन । Shri Parshvnath Bhagwan Puja

 श्री पार्श्वनाथ पूजन

       छंद - तांटक 

हे पार्श्वनाथ ! हे पार्श्वनाथ, तुमने हमको यह बतलाया ।
निज पार्श्वनाथ में थिरता से, निश्चय सुख होता सिखलाया ।। तुमको पाकर मैं तृप्त हुआ, ठुकराऊँ जग की निधि नामी ।
हे रविसम स्व पर प्रकाशक प्रभु, मम हृदय विराजो हे स्वामी

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्

                    वीरछंद

जड़ जल से प्यास न शान्त हुई, अतएव इसे में यहीं राजूँ ।
निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वभाव, पहिचान उसी में लीन रहूँ।
तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक बाँचा नहिं लेश रखें।
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण कमल अर्चूं ॥

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।

चन्दन से शान्ति नहीं होगी, यह अन्तर्दहन जलाता है।
निज अमल भावरूपी चन्दन ही रागाताप मिटाता है । तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि. स्वाहा ।

प्रभु उज्ज्वल अनुपम निजस्वभाव ही, एकमात्र जग में अक्षत ।
जितने संयोग वियोग तथा, संयोगी भाव सभी विक्षत ॥ तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा ।

ये पुष्प काम उत्तेजक हैं, इनसे तो शान्ति नहीं होती।
निज समयसार की सुमन माल ही कामव्यथा सारी खोती ॥ तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा

जड़ व्यञ्जन क्षुधा न नाश करें, खाने से बंध अशुभ होता ।
अरु उदय में होवे भूख अतः, निजज्ञान अशन अब मैं करता ।। तन ॥

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा

जड़ दीपक से तो दूर रहो, रवि से नहिं आत्म दिखाई दें।
निज सम्यक्ज्ञानमयी दीपक ही, मोहतिमिर को दूर करे ॥ तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा ।

जब ध्यान अग्नि प्रज्ज्वलित होय, कर्मों का ईंधन जले सभी ।
दशधर्ममयी अतिशय सुगंध, त्रिभुवन में फैलेगी तब ही ॥ तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।

जो जैसी करनी करता है, वह फल भी वैसा पाता है।
जो हो कर्तृत्व प्रमाद रहित, वह महा मोक्षफल पाता है । तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्ताये फलं नि. स्वाहा

निज आत्मस्वभाव अनुपम है, स्वाभाविक सुख भी अनुपम है।
अनुपम सुखमय शिवपद पाऊँ, अतएव यह अर्घ्य समर्पित है ॥ ।तन ।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा

                    पंचकल्याणक अर्घ्य 

                          (दोहा)

दूज कृष्ण वैशाख को, प्राणत स्वर्ग विहाय ।
वामा माता उर बसे, पूजूं शिव सुखदाय ॥

ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमण्डिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा

पौष कृष्ण एकादशी, सुतिथि महा सुखकार।
अन्तिम जन्म लियो प्रभु, इन्द्र कियो जयकार

ॐ ह्रीं पौषकृष्णएकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

पौष कृष्ण एकादशी, बारह भावन भाय
केशलोंच करके प्रभु, धरो योग शिवदाय ॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णएकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

शुक्लध्यान में होय थिर, जीत उपसर्ग महान।
चैत्र कृष्ण शुभ चौथ को पायो केवलज्ञान ॥

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

श्रावण शुक्ल सु सप्तमी, पायो पद निर्वाण ।
सम्मेदाचल विदित है, तब निर्वाण सुधान ॥

ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्याम् मोक्षमंगलमंडिताय श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा

         जयमाला

हे पार्श्व प्रभु मैं शरण आयो दर्शकर अति सुख लियो |
चिन्ता सभी मिट गयी मेरी कार्य सब पूरण भयो ।

(तर्ज-प्रभु पतित पावन में…)

चिन्तामणी चिन्तत मिले तरु कल्प माँगे देत हैं।
तुम पूजते सब पाप भागें सहज सब सुख हेत हैं।
हे वीतरागी नाथ ! तुमको भी सरागी मानकर ।
माँगें अज्ञानी भोग वैभव जगत में सुख जानकर ।।
तव भक्त वाँछा और शंका आदि दोषों रहित हैं।
वे पुण्य को भी होम करते भोग फिर क्यों चहत हैं।
जब नाग और नागिन तुम्हारे वचन उर धर सुर भये
जो आपकी भक्ति करें वे दास उनके भी भये ।।
वे पुण्यशाली भक्त जन की सहज बाधा को हरें ।
आनन्द से पूजा करें बाँछा न पूजा की करें।।
हे प्रभो तव नासाग्रदृष्टि यह बताती है हमें
सुख आत्मा में प्राप्त कर लें व्यर्थ बाहर में भ्रमें ॥
मैं आप सम निज आत्म लखकर आत्म में थिरता धरूँ ।
अरु आशा तृष्णा से रहित अनुपम अतीन्द्रिय सुख भरूँ ॥
जब तक नहीं यह दशा होती आपकी मुद्रा लखूं।
जिनवचन का चिन्तन करूँ व्रत शील संयम रस चखूँ ।।
सम्यक्त्व को नित दृढ़ करूँ पापादि को नित परिहरू ।
शुभराग को भी हेय जानूँ लक्ष्य उसका नहिं करूँ ।
स्मरण ज्ञायक का सदा विस्मरण पुद्गल का करूँ।
मैं निराकुल निजपद लहूँ प्रभु ! अन्य कुछ भी नहिं चहूँ ।।

ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

            (दोहा)

पूज्य ज्ञान वैराग्य है, पूजक श्रद्धावान ।
पूजा गुण अनुराग अरु, फल है सुख अम्लान ॥

॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥

रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह