श्री पद्मप्रभनाथ स्तुति | Shri Padmaprabhnath Stuti

अहो प्रभु पद्म की मूरति, परम आनंद दाता है |
ध्येय ध्रुवरूप शुद्धात्म, सहज अनुभव में आता है || टेक ||

नशे अविवेक दुःखकारी, भगे दुरमोह तम तत्क्षण |
सर्व दुर्वासना मिटती, ज्ञान सूरज उगाता है || १ ||

ज्यों दृष्टा ज्ञाता हैं जिनवर, त्यों मैं भी दृष्टा ज्ञाता हूँ |
सर्व दोषों से नित न्यारा, शुद्ध चिन्मय दिखाता है || २ ||

मिली सुख शांति निज में ही, अपरमित प्रभुता निज में ही |
तृप्त निज में रहूँ स्वामिन, न बाहर कुछ सुहाता है || ३ ||

नहीं अब भय रहा कुछ भी, प्रलोभन भी न कुछ प्रभुवर |
स्वयं सिद्ध सहज परमातम, पूर्ण शाश्वत सुहाता है || ४ ||

सहज भाऊँ सहज ध्याऊँ, सहज रम जाऊँ निज में ही |
सहज कट जावें भव बंधन, मुक्ति पद सहज आता है || ५ ||

  • बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’
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