हे मल्लि जिनवर हो जितेन्द्रिय, आप सहज स्वाभाव से |
यौवन समय जीता मदन, निज ब्रह्मचर्य प्रभाव से || १ ||
पाकर अतीन्द्रिय परमसुख, प्रभु तृप्त निज में ही हुए |
निजभाव घातक भोग - दुःख, स्वीकार ही प्रभु नहीं किए || २ ||
हा ! गर्त में गिरकर तड़पना, और पछताना अरे !
पीकर हलाहल कौन ज्ञानी, आश जीवन की करे || ३ ||
निस्सार निज के शत्रु सम, लख भोग इन्द्रिय परिहरूँ |
अरु इन्द्रियों से ज्ञान निज, बर्बाद नहीं प्रभुवर करूँ || ४ ||
आनंद भोगों में नहीं, निश्चय परम श्रद्धान है |
आनंद का सागर स्वयं, शुद्धात्मा भगवान है || ५ ||
बातों में जग की मैं न आऊँ, अब न धोखा खाऊँगा |
पावन परम पुरुषार्थ करके, शीघ्र निज पद पाउँगा || ६ ||
नवतत्व के भीतर निजात्मा, परम मंगल रूप है |
उपयोगरूप अमूर्त चिन्मय, त्रिजग में चिद्रूप है || ७ ||
सर्वोत्कृष्ट अमल अबाधित, परमब्रह्म स्वरुप है |
निज में ही रम जाऊँ सुपाऊँ, ब्रह्मचर्य अनूप है || ८ ||
आदर्श पथ दर्शक शरण विभु, एक तुम ही हो अहा |
तव दर्श करके नाथ मुझमें, शक्ति निज जागी महा || ९ ||
अब न किंचित भय अहो, आनंद का नहिं पार है |
संकल्प एवंभूत हो, बस वंदना अविकार है || १० ||
Artist: बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’
Singer: @Shruti