मात्र पूरें ही नहीं, निर्मूल वाँछाए करें |
कुछ नहीं देते तदपि, सुखधाम दर्शाते हमें || टेक ||
सुखरूप निज को भूल करके, भ्रान्तिवश सुख मानते |
धनि कुन्थु जिन तुम बिन कहे, मम स्वरुप दिखावते || १ ||
आत्मा स्वयं परमात्मा, तव दिव्यध्वनि का सार है |
आराधना निज की करें, हो जायें भव से पार है || २ ||
प्रभु दर्श करके तुच्छता, निज रूप में नहीं भासती |
जब दृष्टी अंतर में टिकी, प्रभुता स्वयं प्रतिभासती || ३ ||
छूटें सभी पर भाव प्रभुवर, भावना ये ही प्रबल |
विभु प्रगट होवे मुनिदशा, शुद्धात्म संवेदन सबल || ४ ||
निज में ही होवे पूर्ण थिरता, पास बैठूँ आपके |
निष्काम सविनय भाव वंदन, शीश चरण नायके || ५ ||
- बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’