श्री जिनवर दरबार, खेलूंगी होरी | Shri jinvar darbaar, khelunga hori

श्री जिनवर दरबार, खेलूंगी होरी।। श्री जिनवर।। टेक।।

पर विभाव का भेष उतारूं, शुद्ध स्वरूप बनाय, खेलूंगी होरी।।1।।
कुमति नारिकौं संग न राखूं, सुमति नारि बुलवाय, खेलूंगी होरी।।2।।
मिथ्या भसमी दूर भगाउफं, समकित रंग चुवाय, खेलूंगी होरी।।3।।
निजरस छाक छक्यौ ‘बुधजन’ अब, आनँद हरष बढाय, खेलूंगी।।4।।

Artist : कविवर पं. बुधजन जी

Meaning-
अहो, अब मैं श्री जिनेन्द्र के दरबार में होली खेलूँगी। पर-विभाव का भेष उतारकर शुद्ध स्वरूप बनाऊँगी। अब मैं कुमति रूपी स्त्री को अपने साथ नहीं रखूंगी और सुमतिरूपी स्त्राी को बुला लूँगी। मिथ्यात्व रूपी भस्म को दूर हटाकर सम्यक्त्व रूपी रंग लगाऊँगी। बुधजन कवि कहते हैं कि मैं अब अपने ही रस में छककर अपना आनन्द हर्ष बढ़ाऊँगी।

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