श्री दशलक्षण धर्म अमोलक | Shri Daslakshan Dharm Amolak

श्री दशलक्षण धर्म अमोलक, हृदय में धारो।
सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित, क्रोधादिक निरवारो।।टेक।।

परम इष्ट ज्ञायक स्वभाव है, सहज सदा सुखमय।
जिसके आश्रय से होता है, सर्व दुःखों का क्षय ।।
पर में इष्ट-अनिष्ट कल्पना, झूठी तुम टारो।।श्री दश.।।1।।

पर का दोष न देखो भाई, क्षमा भाव धरना।
पर से भिन्न आत्म वैभव लख, मान सहज तजना।।
सिद्ध स्वरूप स्वयं को लखकर, माया परिहारो।। श्री दश. ।।2।।

तृष्णा लोभ छोड़कर अब तो, निज में तुष्ट रहो।
सत्स्वरूप को समझो, उत्तम संयम सहज धरो।।
उत्तम तप दुष्कर्म नशावे, यथाशक्ति धारो ।। श्री दश. ।। 3 ।।

त्यागो अध्यवसान कष्टमय, अन्य न हो अपना।
भोगों से सुख होगा ऐसा, मत देखो सपना।।
हो निर्ग्रन्थ अकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य धारो।।श्री दश.।।4 ।।

अन्तर्दृष्टि तत्त्व भावनामय, पुरुषार्थ करो।
शिवपद भी स्वाश्रय से प्रगटे, निज में तृप्त रहो।।
शुद्धातम की अक्षय प्रभुता, प्रभु सम अवधारो।।श्री दश. ।।5 ।।

रचयिता: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: Bhakti Bhavna

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