श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजन । Shri ChandrPrabhu Bhagwan Puja

श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजन

              (जोगीरासा)

तज गृहजाल महादुखकारण, चरण शरण में आया।
चन्द्र समान शान्त निर्मल छवि, लखि आनन्द उपजाया ॥
तन मन धन है सर्व समर्पण, करूँ अर्चना स्वामी ।
चंचल परिणति थिर हो निज में, तुम सम त्रिभुवननामी ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याह्वाननम् ।
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्
ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्

(भुजंगप्रयात्)

चढ़ाऊँ क्षमाभावमय नीर सुखकर,
नशें जन्म-मरणादि कारण सु दुखकर ।।
अहो चन्द्रप्रभ जी की पूजा रचाऊँ,
सहजज्ञानमय भावना सहज भाऊँ ।।

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु - विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

चन्दन चढ़ाऊँ परमशान्तिमय प्रभु,
भवाताप नाशे जजूँ आपको विभु ॥ अहो… ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।

अक्षत अमलभावमय देव लाऊँ,
विनाशीक जग के अपद नाहिं चाहूँ ।।
अहो चन्द्रप्रभ जी की पूजा रचाऊँ,
सहजज्ञानमय भावना सहज भाऊँ ।।

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।

अतीन्द्रिय निजानन्द निज माँहिं सरसे,
सतावे नहीं काम जिनवर शरण से । अहो… ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाण - विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।

चिदानन्द सुधारस प्रभो पान करके,
क्षुधादिक महादोष क्षणमाँहिं हरके । अहो…

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रकाशित सहज ज्ञान में नाथ ज्ञायक,
झलकते नशे मोह तम दुःखदायक ॥ अहो… ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।

जलें कर्म सब आत्म ध्यानाग्नि माँहीं,
सुविकसित हो निजगुण नहीं अन्त पाहीं ॥ अहो… ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।

न लौकिक फलों की प्रभो! कामना है
महा मोक्षफल पाऊँ यह भावना है। अहो… ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

धरूँ भक्तिमय देव प्रासु सु अर्घ्य,
हूँ आत्म प्रभुता सु अविचल अनर्घ्यं । । अहो… ।।

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

पंचकल्याणक अर्घ्य

                  (दोहा)

चन्द्रप्रभ जिनराज का, गर्भागम सुखकार ।
चैत कृष्ण पंचमि दिवस, पूजों भाव सम्हार ॥

ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णपंचम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

पौष कृष्ण एकादशी, जन्मे श्री जगदीश ।
इन्द्रादिक उत्सव कियो, नह्वन कियो गिरिशीश ॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

भव-तन भोगविरक्त हो, जिनदीक्षा अविकार ।
धरी पौष वदि ग्यारसी, पूजों करि जयकार ॥

ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

फाल्गुन श्यामा सप्तमी, प्रगट्यो केवलज्ञान ।
आतम महिमा मुक्तिपथ दर्शायो भगवान ॥

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा ।

सित फाल्गुन सप्तमि गये, मुक्तिमाहिं परमेश
पूजत पाप बिनष्ट हों, धन्य धन्य सर्वेश ॥

ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लाम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि. स्वाहा।

जयमाला

              (सोरठा)

जयवन्तो शिवभूप, अचिन्त्य महिमा के धनी ।
परमानन्द स्वरूप, गाऊँ जयमाला प्रभो ॥

(तर्ज- हे दीनबन्धु…)

हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! सत्य शरण हो तुम्हीं ।
हे वीतराग देव ! तारण तरण हो तुम्हीं ॥।
कर दर्श नाथ सहज ही कृतकृत्य हो गया
प्रभु ! स्वयं स्वयं में ही सहज तृप्त हो गया।
विभु ! तेजपुंज आत्मा को आप जानके ।
होकर उदास लोक से दीक्षा सुधार के ।
ध्यानाग्नि में चहुँ घाति कर्म सहज जलाए।
अनन्त दर्श- ज्ञान- सुख - वीर्य तब पाए ।
अष्टम हुए तीर्थेश धर्मतीर्थ बताया।
ध्रुव तीर्थरूप आत्मा प्रत्यक्ष दिखाया ॥
आत्मानुभूतिमय अहो परमार्थ तीर्थ है।
जिससे तिरें भवसिन्धु वह सत्यार्थ तीर्थ है ।
निजभाव में रमते सदा तुम ही सु राम हो ।
निष्काम परमब्रह्म हो आनन्दधाम हो ।
परमार्थं मुक्तिमार्ग के हो आप विधाता ।
विश्वेश विष्णु रूप हो सब विश्व के ज्ञाता ।।
अतिशय तुम्हें जो देखते वे दर्शनीय हों ।
जो भावसहित पूजते वे पूजनीय हों ।।
वाँछा ही मिटे देव तुम्हारे सु ध्यान से
हो प्रगट आत्मीकभाव आत्म ध्यान से ।।
प्रभु ! ध्यानमय मुद्रा सहज वैराग्य जगाती ।
रागांश हों निश्शेष ज्ञान ज्योति जगाती ॥
चैतन्यमय परमार्थ भावना सहज रहे।
भवनाश हो शिववास हो दुर्भावना दहे ।।
गद् गद् हुआ बहुमान से, बस मौन ही रहूँ ।
नाथ हो निर्ग्रन्थ तेरा पंथ मैं गहूँ ।।
तेरे प्रसाद से सहज समाधि पाऊँगा ।
ज्ञाता हूं मुक्त ज्ञातारूप ही रहाऊँगा ।

              (घत्ता)

श्रीचन्द्र जिनेशं, जय जगतेशं, धर्मेशं भवसर-तारी ।
अद्भुत प्रभुतामय हुआ सु निर्भय, पूजत पद मंगलकारी ॥

ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

            (दोहा)

समयसारमय आपकी, प्रभुता तिहुँजग सार ।
विस्मय उपजावे प्रभो, भुक्ति मुक्ति दातार ।

॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥

रचयिता: बाल ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

Source: अध्यात्म पूजांजलि ,जिनेंद्र आराधना संग्रह