अशरण जग में चन्द्रनाथ जिन, साँचे शरण तुम्हीं हो |
भव सागर से पार लगाओ, तारण तरण तुम्ही हो || टेक ||
दर्शन पाकर अहो जिनेश्वर, मन में अति उल्लास हुआ |
देहादिक से भिन्न आत्मा, अंतर में प्रत्यक्ष हुआ ।।
आराधन की लगी लगन प्रभु, परमादर्श तुम्हीं हो |
भव सागर से पार लगाओ, तारण तरण तुम्हीं हो || १ ||
अद्भुत प्रभुता झलक रही है, निरखत हुआ निहाल मैं |
रत्नत्रय की निधियाँ बरसे, हुआ सु मालामाल मैं ||
समतामय ही जीवन होवे, प्रभु अवलम्ब तुम्हीं हो |
भवसागर से पार लगाओ, तारण तरण तुम्हीं हो || २ ||
मोह न आवे क्षोभ न आवे, ज्ञाता मात्र रहूँ मैं |
अविरल ध्याऊँ चित्स्वरूप मैं, अक्षय सौख्य लहुँ में ||
हो निष्काम वंदना स्वामी, मेरे साथ तुम्हीं हो |
भवसागर से पार लगाओ, तारण तरण तुम्हीं हो || ३ ||
रचयिता:- बाल ब्र. रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’