हे चन्द्रप्रभो ! लख चन्द्र चिह्न, चरणार्चन करता हूँ स्वामी।
तुमसा निज में निजरूप निरख, मैं बनूँ आपसा शिवधामी ॥
हे साढ़े पांच कोटि मुनिवर! हे नंग, अनंगकुमार मुनीश ।
सोनागिर पर आत्म-ध्यान धर, मुक्त हुये तुम हे योगीश ॥
उर उमड़ रही ऐसी श्रद्धा, मनवांछित शिवफल पाऊंगा।
तुम अपनाओ या ठुकराओ, मैं खाली हाथ न जाऊँगा ॥
हे नाथ! जिसे भी यह मनहर, खड़गासन प्रतिमा मन भाती।
अन्तर्मुख मुद्रा लख उसकी, सब कर्म-कालिमा धुल जाती ॥
आओ! आओ! प्रभुवर मेरे, मम हृदय-कमल में बस जाओ।
भव-वन में भटक रहा कबसे! अब आकर शिव-पथ बतलाओ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय
मम हृदय-कमल अवतर अवतर संवौषट् अह्नाननम्।
मम-हृदय-कमल तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्।
मम हृदय-कमल सन्निहितौ भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
यह जल तो जन्म, जरा, मृत्यु को, किंचित् भी मिटा नहीं सकता।
शुद्धात्म-रसामृत पान बिना, शाश्वत जीवन नहिं मिल सकता ॥
अमृत के रत्न-कलश भरकर, प्रत्यक्ष आपकी पूजन की।
पर बिन जाने निज आतम को, नहिं प्यास बुझी मेरे मन की ॥
अब ऐसा वर दो हे स्वामी! मैं जी भर ज्ञानामृत पीऊँ।
निज ज्ञानोदधि में डूब-डूब, परिपूर्ण तृप्त होकर जीऊँ ॥
मम राग-रोग के वैद्य तुम्हीं, उपचार कराने आया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो! सोनागिर के, क्षीरोदधि-घट भर लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय सम्यक्त्व-सुधा प्राप्तार्थे जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन सम शीतल हूँ मैं तो, यह अबतक समझ नहीं पाया।
इस कारण ही रागानल से, मेरा अन्तर्मन झुलसाया ॥
विपरीत मार्ग-दर्शक अबतक, मुझको अनादि से मिले प्रभो।
नहिं सुगुरु-कुगुरु की परख करी, अतएव भटकता रहा विभो ॥
ज्यों अशुभ महा दुखदाता है, त्यों शुभ भी तो दुखदाई है।
यदि इधर गिरा तो कुआँ भरा, यदि उधर गिरा तो खाई है ॥
तज दोनों को निज में डूबो, यह आज आपने समझाया।
हे चन्द्रप्रभो! सोनोगिर के, अतएव चरण चन्दन लाया ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अकषायी शांति प्राप्तार्थे चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मैं अक्षत हूँ, क्षत हो न सकूं यह वचनों से तो खूब कहा ।
पर श्रद्धा ऐसी हुई नहीं, अतएव दुखी का दुखी रहा ॥
हे जीव ! सदा तू अक्षत है, यह समोशरण में समझाया।
हाँ-हाँ तो वहाँ बहुत की थी, लेकिन विश्वास नहीं आया ॥
मैं क्षत को ही अक्षत माना, अक्षत को परख नहीं पाया।
मैं हूँ अनादि से ही अक्षत, यह आज आपने समझाया ॥
अक्षत स्वरूप के पाने को, गुणगान आपके गाता हूँ।
हे चन्द्रप्रभो ! सोनागिर के, धावलाक्षत चरण चढ़ाता हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षत स्वरूप प्राप्तार्थे अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्यों स्वाद-लोलुपी मच्छ स्वयम्, आ कांटे में बिंधकर मरता।
त्यों भोगों में आकर्षित हो, मैं प्रतिक्षण भाव-मरण करता ॥
मैं पुण्य-फलों में मोहित हो, चैतन्य-सम्पदा को भूला।
हा ! स्वयम् स्वयम् को विस्मृत कर, चहुंगति के झूल रहा झूला ॥
अब समकित-सावन आ जाये, मम चेतन-उपवन खिल जाये।
शुभ-अशुभ राग-दुर्गन्ध मिटे, मम जीवन सुरभित हो जाये ॥
तुम शीलाचरण सिखाते हो, यह सुनकर दौड़ा आया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो! सोनागिर के, ये पुष्प चढ़ाने लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय निष्काम भाव प्राप्तार्थे पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्यों अगनी में ईंधन डालो, तो अगनी और दहकती है।
त्यों विध-विध व्यंजन से कैसे, मम जठरानल बुझ सकती है?
भौतिक सुविधा ज्यों-ज्यों बढ़तीं, भोगों की भूख भड़कती ।
मैं विषयों में फँस भ्रमित हुआ, अब अकल काम नहिं करती है ॥
क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? स्वामी! सब ओर लुटेरे दिखते हैं।
विपरीत मार्ग बतलाकर ये, मेरी श्रद्धा को ठगते हैं ॥
सत्यार्थ मार्ग समझादो प्रभु! मैं चरण-शरण में आया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो! सोनागिर के, नैवेद्य भेंट में लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनन्त बल प्राप्तार्थे नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मोहान्धकार में भ्रम से मैं, विपरीत मार्ग पर गमन किया।
जो बंध-मार्ग है उसको ही, मैं मोक्ष-मार्ग पहिचान लिया ॥
प्रभु! सुगुरु-कुगुरु की परख बिना, जो भोगी है योगी लगता।
को है कुदेव, को है सुदेव, हे भगवन! भेद नहीं दिखता ॥
समझादो इनकी परिभाषा, इस जग ने मुझे भुलाया है।
सन्मार्ग-प्रदर्शक हो तुम ही, यह निर्णय मुझको आया है ॥
निज-पर की परख करा दोगे, यह आशा लेकर आया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो! सोनागिर के, यह रत्न-ज्योति जो लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय ज्ञान-ज्योति प्राप्तार्थे दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
क्या दीपक, धूप, अगरबत्ती से, अष्टकर्म जलते होंगे?
धूँ-धूँ कर धुआँ धधकता है, क्या जीव नहीं मरते होंगे?
इस तरह अगर यह हिंसा है, तो पुण्य कहो कैसा होगा?
यदि हिंसा में ही पुण्य कहो, तो पाप बतादो क्या होगा?
इन तथाकथित विद्वानों ने, जो अबतक मुझको समझाया।
वह सच है अथवा झूठ नाथ! यह निर्णय मैं नहिं कर पाया ॥
सत्यार्थ कथन तुम ही करते, इसलिये समझने आया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो ! सोनागिर के, यह धूप चढ़ाने लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शुद्धात्म-सौरभ प्राप्तार्थे धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ-अशुभ कर्म के विष-फल तो, मैंने अनादि से खाये हैं।
इनको पाकर उन्मत्त बना, फलतः अनन्त दुख पाये हैं ॥
वह अमृतफल कैसा होगा, जिसको पाकर तुम तृप्त हुये ?
आनंद अतीन्द्रिय भोग रहे, दुख-दावानल से मुक्त हुये ॥
जो अमर बनाता जीवन को, मैं उस फल का प्रत्याशी हूँ।
दो दान वही फल हे स्वामी! मैं तेरा पंथ-प्रवासी हूँ ॥
तुम भाव-मरण क्षय कर दोगे, मैं इस श्रद्धा से आया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो! सोनागिर के, सेवा में ये फल लाया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय परमानन्द फल प्राप्तार्थे फलं निर्वपामीति स्वाहा।
इन जल फलादि का आकर्षण, मुझको स्वभाव से विमुख करे।
ये सरस लगें पर नीरस हैं, सब आस्रव के हैं निमित्त अरे ॥
संसार-वास बढ़ता इनसे, इनकी ममता दुखदाई है।
ये समता के अवरोधक हैं, यह आज समझ में आई है ॥
जगती का सारा जड़ वैभव, यह असहनीय दुखदाता है।
जो इस पर मोहित होता है, वह जीवन भर दुख पाता है ॥
मैं उसे समर्पित करने को, इस अर्घ्य रूप में लाया हूँ।
हे चन्द्रप्रभो! सोनागिर के, मैं भव-दु:ख से घबराया हूँ ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्तार्थे अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक अर्घ्य
(दोहा)
चैत्र कृष्ण की पंचमी, तज विजयंत विमान ।
माँ सुलक्षणा-गर्भ में, आये कृपा निधान ॥
चन्द्रपुरी नगरी सजी, बरसे रतन अपार ।
थिरक-थिरक नचने लगी, धरती कर शृंगार ॥
ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण पंचमी गर्भ मंगल मंडिताय मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पौष कृष्ण एकादशी, हुआ चन्द्र अवतार।
महासेन नृप के भवन, हुये मंगलाचार ॥
शहनाई बजने लगी, दुंदुभि और मृदंग।
मुदित हुये सब नगर-जन, अंग अंग प्रत्यंग ॥
ॐ ह्रीं पौष कृष्ण एकादशी जन्म मंगल मंडिताय मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पौष कृष्ण एकादशी हुआ उग्र वैराग।
तप करने तत्पर हुये, सकल परिग्रह त्याग ॥
लोकान्तिक सुरगण तभी, किये विविध गुणगान।
तप की कर अनुमोदना, वन को किया प्रयान ॥
ॐ ह्रीं पौष कृष्ण एकादशी तपो मंगल मंडिताय मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, प्रगटा पूरण ज्ञान।
झलका ज्ञानालोक में, लोकालोक महान् ॥
समोशरण रचना करी, धनपति ने तब आय।
भव्य-वृन्द आकर तभी, समझा मोक्ष-उपाय ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्णा सप्तमी ज्ञान मंगल मंडिताय मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, अष्ट कर्म कर चूर।
तुम अशरीरी हो गये, सुख प्रगटा भरपूर ॥
सब संयोग वियोग कर, बन संयोगातीत ।
ध्रुव, अचलित, अनुपम सुगति पाकर भये पुनीत ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुन शुक्ला सप्तमी मोक्ष मंगल मंडिताय मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(लावनी)
हे चन्द्रप्रभो ! बस विनय यही है मेरी।
अब जीवन भर, मैं रहूँ शरण में तेरी ॥
यह शान्त, सौम्य, छवि अन्तर्मन को भाती।
लख उर-उपवन की, कलियां खिलखिल जाती ॥
अति महा मनोहर खड़गासन प्रतिमा ये।
दर्शन कर समकित होता है महिमा ये॥
जब चौदहवीं थी सदी बना यह मंदिर।
जो समोशरण सा दिखता महा मनोहर ॥
श्री सिद्धक्षेत्र सोनागिर पर हे जिनवर !
तुम मूक देखना देते यही निरन्तर ॥
सब स्व-पर भेद विज्ञान निरन्तर करना।
निज अनुभव बिन नहिं मिटे जनमना मरना ॥
शुभ-अशुभ भाव तज शुद्ध भाव जो करता।
वह प्राणी ही भव-सागर पार उतरता ॥
तुम पुण्यभाव तो करो मगर रुचि त्यागो।
रुचि शुद्ध-भाव की रखो स्वहित में लागो ॥
ऊँचे से ऊँचा पुण्यभाव का होना।
निज अनुभव बिन है बीज दु:खों को बोना ॥
बिन स्वानुभूति के सम्यग्दर्शन पाना।
ऐसा है जैसे बांझ पुत्र उपजाना ॥
तीर्थेश तथा आचार्य कहें ऐसा ही।
बिन समकित हित नहिं पुण्य करो कैसा ही ॥
सत् देव-शास्त्र-गुरुवर की शरण न तजना।
तुम पुण्य-भाव तज पाप कदापि न करना ॥
जो शुभभावों को छोड़ पाप उपजाते।
वे पापबंध कर घोर नरक गति पाते ॥
यदि नगर ग्वालियर से झांसी को जावें।
तो सोनागिर स्टेशन पथ में पावें ॥
इक हाथी-द्वार विशाल सड़क पर मिलता।
पथिकों को दर्शन हेतु बुलाया करता ॥
है स्टेशन के निकट क्षेत्र सोनागिर।
इस पर्वत पर शोभित अस्सी जिन-मंदिर ॥
है चन्द्रप्रभो का मुख्य विशाल जिनालय।
दर्शन कर लगता मानो हो सिद्धालय ॥
मुनि साढ़े पांच करोड़ सिद्ध पद पाया।
कई बार चन्द्रप्रभ समोशरण भी आया ॥
अति उन्नत मानस्तम्भ बना प्रांगण में।
दर्शन करते ही मान गले इक क्षण में ॥
है मंदिर सन्मुख खड़गासन चौबीसी।
प्रत्यक्ष जिनेश्वर खड़े हुये हों ऐसी ॥
दो गोरे हैं, दो हरे, साँवरे दो हैं।
दो लाल वरन के, कंचन से सोलह हैं ॥
मुनि नंग, अनंगकुमार, बाहुबलि सोहैं।
अंतर्मुख छवि से जन-जन का मन मोहैं।
पर्वत के चारों ओर परिक्रमा भारी।
प्रति दिवस वंदना करते हैं नर-नारी ॥
शिखरों पर फहराती हैं ध्वजा मनोहर।
जब लहराती हैं छटा दिखे अति सुंदर ॥
वे स्वर्गों से देवों को यहाँ बुलातीं।
छवि सिद्धक्षेत्र की दिखला उन्हें लुभातीं ॥
सुर आवत गावत नाचत विविध प्रकारा।
वे ऊँचे स्वर से करते जय-जयकारा ॥
श्री सिद्धक्षेत्र सोनागिरवर की जय हो।
हो जयहो, जयहो, जयहो, जयहो, जयहो ॥
बहु भाँति देवगण नाचें धूम मचावें।
ले अष्ट द्रव्य पूजन कर अति हर्षावें ॥
घन घनन घनन घन घंटा खूब बजाते।
पग थिरक थिरक कर सुरगण नचते गाते ॥
ता थेइ थेइ थेइ थेइ थिरक थिरक पग थिरकें।
रुनझुन रुनझुन रुनझुन पैजानियां झनकें ॥
खन खनन खनन खन खनन खंजरी खनकें।
झन झनन झनन झन झनन झांझरी झनकें ॥
ढम ढम ढम ढम ढम ढोल ढमाढम बजते ।
छम छम छम छम छम देव छमाछम नचते ॥
सुर वीन बाँसुरी, झांझ मृदंग बजावें।
मल्हार, भैंरवी, फाग, दादरा, गावें ॥
यह क्षेत्र हमें प्राणों से भी है प्यारा।
वंदनकर जीवन पावन होय हमारा ॥
ॐ ह्रीं श्री सोनागिर सिद्धक्षेत्रस्थ मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्ण स्वलीनता प्राप्तार्थे पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा
चन्द्रनाथ प्रभु आपको, जो पूजे मन लाय।
शुद्धातम को प्राप्त कर, तुमसा ही बन जाय ॥
( इत्याशीर्वाद पुष्पांजलि क्षिपामि )
रचयिता: पं० प्रेमचंद जैन , शिवपुरी