अमृत झरे चंद्र से त्यों ही, दिव्यध्वनि प्रभु बरसाई |
सुनकर भव्यजनों की जिनवर, मिथ्यादृष्टि विनसाई || १ ||
शुद्धात्म अमृतचन्द्र अहो, रत्नत्रय ही परमामृत |
आधि - व्याधि - उपाधिरहित, आराध्य जगत में है निजपद || २ ||
निजस्वभाव ही एक मात्र, साधन है शिवपद पाने का |
सच पूछो तो निजपद ही, शिवपद है साध्य जमाने का || ३||
तव दर्शन पाकर चंद्र प्रभो, आनंद ह्रदय में छाया है |
तुम सम ही निज में रम जाऊँ, प्रभु सविनय शीश नवाया है || ४ ||
रचयिता:- बाल ब्र. रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’