छोड़ विभूति चक्रवर्ती की, निज वैभव प्रगटाया है |
सम्यक चारित्र चक्र धारकर, कर्मचक्र विनशाया है || १ ||
धर्मचक्र का किया प्रवर्तन, सिद्धचक्र में जाय बसे |
वस्तु तत्व का ज्ञान कराता, श्री जिनवर नयचक्र लसे || २ ||
धर्मचक्र की मुख्य धुरा, सार्थक अरनाम तुम्हारा है |
निज स्वाभाव साधक - आराधक, संत जनों को प्यारा है || ३ ||
दर्शन कर प्रभु भेदज्ञान, निज पर का मैंने पाया है |
निज स्वाभाव में ही रम जाऊँ, सविनय शीश नवाया है || ४ ||
- बाल ब्र. रविंद्र जी ’ आत्मन’