अभिनन्दन स्वामी, यही भावना सार |
पर से अति निरपेक्ष निराकुल हो परिणति अविकार || टेक ||
पुण्योदय की लख संपत्ति, हो नहिं हर्ष लगार |
पापोदय की देख विपत्ति, हो न खेद दुखकार || १ ||
भेदज्ञान की धारा वर्ते शिवस्वरूप शिवकार |
ज्ञातादृष्टा रहूँ सहज ही, निज में तृप्ति अपार || २ ||
पर का कुछ स्वामित्व न भासे, कर्तृत्व हो न लगार |
इष्ट अनिष्ट कल्पना नाशे, हो समता सुखकार || ३ ||
धैर्य विघ्न बाधाओं में धर, करुँ सु तत्व विचार |
दोष नहीं पर का कुछ देखूँ, द्रव्यदृष्टि अवधार || ४ ||
असफलता में नहीं अकुलाऊँ, पूरव कर्म निहार |
धर्मध्यान में चित्त लगाऊँ, ध्याऊँ निजपद सार || ५ ||
संयम प्रति हो प्राण निछावर, लगें नहीं अतिचार |
हो निर्ग्रन्थ समाधी सु पाऊँ, सर्व प्रपंच विडार || ६ ||
महाभाग्य से प्रभु को पाया, मन में हर्ष अपार |
चरण शरण में जीवन बीते, अभिनन्दन शत बार || ७ ||
- बाल ब्र. रविंद्र जी ‘आत्मन’