श्री सीमंधर पूजन । Shree Seemandhar Poojan

              (कुंडलिया)

भव समुद्र सीमित कियो, सीमंधर भगवान।
कर सीमित निज ज्ञान को, प्रगट्यो पूरण ज्ञान।।

प्रगट्यो पूरण ज्ञान वीर्य दर्शन सुखकारी।
समयसार अविकार विमल चैतन्य विहारी।।
अन्तर्बल से किया प्रबल रिपु मोह पराभव।
अरे भवांतक करो अभय हर लो मेरा भव।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट…
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः…
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्…

प्रभुवर तुम जल से शीतल हो, जल से निर्मल अविकारी हो।
मिथ्यामल धोने को जिनवर, तुम ही तो मल परिहारी हो।।
तुम सम्यकज्ञान जलोदधि हो, जलधर अमृत बरसाते हो।
भविजन मन मीन प्राण दायक, भविजन मन जलज खिलाते हो।।
हे ज्ञान पयोनिधि सीमंधर, यह ज्ञान प्रतीक समर्पित है।
हो शांत ज्ञेय निष्ठा मेरी, जल से चरणाम्बुज चर्चित है।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा…

चंदन सम चंद्रवदन जिनवर, तुम चंद्रकिरण से सुखकर हो।
भवताप निकंदन है प्रभुवर, सचमुच तुम ही भव दुखहर हो।।
जल रहा हमारा अन्तःस्थल, प्रभु इच्छाओं की ज्वाला से।
यह शांत न होगा हे जिनवर, रे विषयों की मधुशाला से।।
चिर अंतरदाह मिटाने को, तुम ही मलयागिरि चंदन हो।
चंदन से चर्चूं चरणाम्बुज, भव-तप-हर शत शत वंदन हो।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा…

प्रभु अक्षतपुर के वासी हो, मैं भी तेरा विश्वासी हूँ।
क्षत विक्षत में विश्वास नहीं, तेरे पद का प्रत्याशी हूँ।।
अक्षत का अक्षत संबल ले, अक्षय साम्राज्य लिया तुमने।
अक्षय विज्ञान दिया जगको, अक्षत ब्रह्मांड किया तुमने।।
मैं केवल अक्षत अभिलाषी, अक्षत अतएव चरण लाया।
निर्वाण शिला के संगम-सा, धवलाक्षत मेरे मन भाया।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा…

तुम सुरभित ज्ञान सुमन हो प्रभु, नहीं राग द्वेष दुर्गंध कहीं।
सर्वांग सुकोमल चिन्मय तन, पर से कुछ भी संबंध नहीं।।
निज अंतर वास सुवासित हो, शून्यान्तर पर की माया से।
चैतन्य विपिन के चितरंजन, हो दूर जगत की छाया से।।
सुमनों से मन को राह मिली, प्रभु कल्पबेलि से यह लाया।
इनको पा चहक उठा मन खग, भर चोंच चरण में ले आया।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा…

आनंद रसामृत के दृह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं।
तुम मुक्त क्षुधा के वेदं से, षट रस का नाम-निशान नहीं।।
विध विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शांत हुई मेरी।
आनंद सुधारस निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी।।
चिर-तृप्ति प्रदायी व्यंजन से, हों दूर क्षुधा के अंजन ये।
क्षुत पीड़ा कैसे रह लेगी, जब पाये नाथ निरंजन ये।।
ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा…

चिन्मय विज्ञान भवन अधिपति, तुम लोकालोक प्रकाशक हो।
कैवल्य किरण से ज्योतित प्रभु, तुम महामोहतम नायक हो।।
तुम हो प्रकाश के पुंज नाथ, आवरणों की परछाँह नहीं।
प्रतिबिम्बित पूरी ज्ञेयावलि, पर चिन्मयता को आंच नहीं।।
ले आया दीपक चरणों में, रे अंतर आलोकित कर दो।
प्रभु तेरे मेरे अंतर को, अविलंब निरंतर से भर दो।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा…

धू-धू जलती दुख की ज्वाला, प्रभु ट्रस्ट निखिल जगती-तल है।
बेचेत पड़े सब देही हैं, चलता फिर राग प्रभंजन है।।
यह धूम घूमरी खा खा कर, उड़ रहा गगन की गलियों में।
अज्ञान तमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग-रलियों में।।
संदेश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए ऊर्ध्वगामी जग से।
प्रगटे दशांग प्रभुवर तुमको, अन्तर्दशाङ्ग की सौरभ से।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपम निर्वपामीति स्वाहा…

शुभ-अशुभ वृत्ति एकांत दुख, अत्यंत मलिन संयोगी है।
अज्ञान विधाता है इनका, निश्चित चैतन्य विरोधी हैं।।
कांटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य सदन के आँगन में।
चंचल छाया की माया-सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में।।
तेरी फल-पूजा का फल प्रभु, हों शांत शुभाशुभ ज्वालाएँ।
मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु शांत लताएँ कहा जाएँ।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय मोक्ष-फल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा…

निर्मल जल-सा प्रभु निज स्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए।
भव ताप उतारने लगा तभी, चंदन-सी उठी हिलोर हिये।।
अभिराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने।
क्षुत-तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने।।
मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए।
फल हुआ प्रभो ऐसा मधुरम, तुम धवल निरंजन स्वस्थ हुए।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा…

   जयमाला

        (दोहा)

वैदेही हो देह में, अतः विदेही नाथ।
सीमंधर निज सीम में, शाश्वत करो निवास।।
श्री जिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरिहंत।
वीतराग सर्वज्ञ श्री, सीमंधर भगवंत।।

          (पद्धरि)

हे ज्ञान स्वभावी सीमंधर, तुम हो असीम आनंदरूप।
अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप।।
मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचंड।
हो स्वयं अखण्डित कर्म शत्रु को, किया आपने खंड खंड।।
ग्रहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान।
आतम स्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान।।
तुम दर्शन ज्ञान दिवाकर हो, वीरज मंडित आनंदकंद।
तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द।।
पूरब विदेह में हे जिनवर! हो आप आज भी विद्यमान।
हो रहा दिव्य उपदेश भव्य, पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान।।
श्री कुंदकुंद आचार्य देव को, मिला आपसे दिव्य ज्ञान।
आतम स्वभाव साधन द्वारा, पाया उनने आनंद महान।।
पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार।
समझाया उनने समयसार, हो गए स्वयं वे समयसार।।
दे गए हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार।
है समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार।।
मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जावे समयसार।
है यही चाह है यही राह, जीवन हो जावे समयसार।।

ॐ ह्रीं श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

         (दोहा)

समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं।
महिमा अपरंपार, समयसारमय आपकी।।

     **पुष्पांजलिम् क्षिपेत्**