श्री क्षमावाणी पर्व पूजन । Shree Kshamavani Parv Pujan

स्थापना

(छन्द- ताटंक)

महाभक्ति से पूजा करता, क्षमामयी परमातम की। अन्तर्मुख हो कर भावना, क्षमा स्वभावी आतम की।। शुद्धातम- अनुभूति होते, ऐसी तृप्ति प्रगटाती। क्रोधादिक दुर्भावों की सब, सन्तति तत्क्षण विनशाती।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् इत्याहवाननम्।
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः इति स्थापनम्।
ॐ हीं श्री उत्तमक्षमाधर्म अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणम्।

अष्टक

(छन्द-वीर)

जिनवर का स्मरणमयी जल, मिथ्या मैल नशाता है। सम्यक्भाव प्रगट होते ही, मुक्तिद्वार खुल जाता है।। उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी। मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

भाव स्तवनमय चन्दन ही, भवाताप विनशाता है।
शीतल होती सहज परिणति, चित्त न फिर भटकाता है ।। उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।

अक्षय वैभव अक्षय प्रभुता, अंतर माँहि दिखाती है।
जिनवर सम ही क्षत् भावों से, सहज विभक्ति आती है ।। उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।

समयसारमय सहज परिणति, नियमसार हो जाती है।
कामवासना उस आनन्द से, सहजपने विनशाती है ।। उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभो आपके सन्मुख होते, ऐसी तृप्ति होती।
नहीं भोगों की भूख सताती, अद्भुत तृप्ति होती है।। उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी। मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सम्यग्ज्ञान प्रगट होते ही, सिद्ध समान स्वभाव दिखे। अनेकान्तमय तत्त्व दिखाता, मोह महातम सहज नशे ।। उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

भेदज्ञान की चिनगारी, वैराग्य भाव से सुलगाती। ध्यान अग्नि से सहजपने ही, कर्म कालिमा जल जाती ।। उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमाधर्माय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

आत्मलाभ से विषय सुखों का, लोभ सहज मिट जाता है।
आत्मलीनता से बिन चाहे, मोक्ष महाफल आता है ।।उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

भक्ति भाव से अर्घ्य चढ़ाऊँ, निज अनर्घ पद पाने को।
पूजा करते भाव उमगता, निज में ही रम जाने को ।। उत्तम क्षमा…।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

(दोहा)

जयमाला गाते हुए, यही भाव सुखकार।
दशलक्षणमय धर्म की, होवे जय जयकार।।

(तर्ज - हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम…)

सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित, चारित्र हो रागादि रहित। यही भावना हे जिनवर, सफल होय मेरी सत्वर।।

द्रव्य भाव से स्तुति कर, मैं भी अन्तर्मुख होकर।
अहो आत्म में निज पर की, करूँ भावना सिद्धों की।।

द्रव्य दृष्टि से सिद्ध समान, देखूं सबको ही भगवान। भिन्न लखूं औपाधिक भाव, सहज निहार ज्ञायक भाव।।

होय मंगलाचरण तभी, परिणति ज्ञानानन्दमयी।
भासे जिनशासन का मर्म, सहज प्रगट हो आतमधर्म।।

परम साध्य का हो पुरुषार्थ, समय समय भाऊँ परमार्थ।
दिखे न पर में इष्ट-अनिष्ट, नशें सहज क्रोधादिक दुष्ट।।

सहज अहेतुक अरु स्वाधीन, नहीं परिणमन पर-आधीन।
कोई किसी का कर्ता नाहिं, कहा जिनेश्वर आगम माहिं।।

ज्ञानदृष्टि से सहज दिखाय, परमानन्द अहो उपजाय। होय निःशक्त अरु निरपेक्ष, ग्लानि मन में रहे न शेष।।

हो निर्मूढ़ लगें निज माँहि, पर का दोष दिखे कुछ नाहिं।
निज परिणति निज माँहि लगाय, परमप्रीति धर धर्म दिपाय।।

संशय विभ्रम और विमोह, दोष ज्ञान में रहे न कोय। शुद्ध ज्ञान वर्ते निज माहिं, अष्ट अंग सहजहिं विलसाहिं।।

पर से हो विरक्ति सुखदाय, संयम का पुरुषार्थ बढ़ाय।
विषयारंभ परिग्रह टार, व्रत समिति गुप्ति उर धार।।

हो निर्ग्रन्थ रमें निज माहिं, बाहर की किंचित् सुधि नाहिं।
शुक्ल ध्यान से कर्म नशाय, अविनाशी शिव पद प्रगटाय।।

यही भावना मन में धार, करके उत्तम तत्व विचार। क्षमा भाव सबके प्रति लाय, सब जीवों से क्षमा कराय।।

अन्तर बाहर हो निर्ग्रन्थ, अपनाऊँ जिनवर का पंथ। जिनशासन वर्ते जयवंत, रत्नत्रय वर्ते जयवन्त।।

क्षमा भाव अन्तर न समाय, वचनों में भी प्रगटे आय। सहज सदा वर्ते वात्सल्य, परिणति होवे सहज निःशल्य।।

ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय अनर्घ्य पद प्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

दोष दृष्टि को छोड़कर, गुण ग्रहण का भाव।
रहे सदा ही चित्त में, ध्याऊँ सहज स्वभाव।।

(पुष्पांजलि क्षिपामि)

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