श्री बाहुबली जिनपूजन | Shree Bahubali Jinpujan

हे बाहुबली! अद्भुत अलौकिक, ज्ञान मुद्रा राजती |
प्रत्यक्ष दिखता आत्मप्रभुता, शील महिमा जागती ||
तुम भक्तिवश वाचाल हो गुणगान प्रभुवर मैं करूँ |
निरपेक्ष हो पर से सहज पूजूँ स्वपद दृष्टि धरूँ ||
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननम्) |
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापनम्) |
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सत्रिधिकरणम्) |

स्वयंसिद्ध सुख निधान आत्मदृष्टि लायके,
जन्म-मरण नाशि हों मोह को नशायिके |
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूं सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |

कल्पना, अनिष्ट-इष्ट की तजूँ अज्ञानमय,
परिणति प्रवाहरूप होय शान्त ज्ञानमय ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा |

पराभिमान त्याग के, सु भेदज्ञान भायके,
लहूँ विभव सु अक्षयं, निजात्म में रमाय के ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा |

छोड़ भोग रोग सम सु ब्रह्मरूप ध्याऊँगा,
काम हो समूल नष्ट सुख-अनंत पाऊँगा ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा |

तोषसुधा पान करूँ आशा तृष्णा त्याग के,
मग्न स्वयं में ही रहूँ चित्स्वरूप भाय के ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा |

चेतना प्रकाश में चित् स्वरूप अनुभवूँ,
पाऊँगा कैवल्यज्योति कर्म घातिया दलूँ ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा |

आत्म ध्यान अग्नि में विभाव सर्व जारीहों,
देव आपके समान सिद्ध रूप धारि हों ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा |

इन्द्र चक्रवर्ति के भी पद अपद नहीं चहूँ,
त्रिकाल मुक्त पद अराध मुक्तपद लहूँ लहूँ ।।बाहुबली…।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा |

अनर्घ्य प्रभुता आपकी सु आप में निहारिके,
नाथ भाव माँहिं में, अनर्घ्य अर्घ्य धारिके ||
बाहुबली जिनेन्द्र भक्ति से करूँ सु अर्चना,
तृप्त स्वयं में ही रहूँ अन्य हो विकल्प ना।।
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

—जयमाला—

(दोहा)
मोहजयी इन्द्रियजयी, कर्मजयी जिनराज |
भावसहित गुण गावहुँ, भाव विशुद्धि काज ||

(जोगीरासा)
अहो बाहुबलि स्वामी पाऊँ, सहज आत्मबल ऐसा |
निर्मम होकर साधूँ निजपद, नाथ आप ही जैसा ||
धन्य सुनन्दा के नन्दन प्रभु, स्वाभिमान उर धारा |
चक्री को नहिं शीस झुकाया, यद्यपि अग्रज प्यारा ||
कर्मोदय की अदभूत लीला, युद्ध प्रसंग पसारा |
युद्ध क्षेत्र में ही विरक्त हो, तुम वैराग्य विचारा ||
कामदेव होकर भी प्रभु, निष्काम तत्त्व आराधा |
प्रचुर विभव, रमणीय भोग भी, कर न सके कुछ बाधा ||
विस्मय से सब रहे देखते, क्षमा भाव उर धारे |
जिनदीक्षा ले शिवपद पाने, वन में आप पधारे ||
वस्त्राभूषण त्यागे लख निस्सार, हुए अविकारी |
केशलौंच कर आत्म -मग्न हो, सहज साधुव्रत धारी ||
हुए आत्म-योगीश्वर अद्भुत, आसन अचल लगाया |
नहिं आहार-विहार सम्बन्धी, कुछ विकल्प उपजाया ||
चरणों में बन गई वाँमि, चढ़ गई सु तन पर बेलें |
तदपि मुनीश्वर आनन्दित हो, मुक्तिमार्ग में खेलें ||
नित्यमुक्त निर्ग्रन्थ ज्ञान-आनन्दमयी शुद्धात्म |
अखिल विश्व में ध्येय एक ही, निज शाश्वत परमातम ||
निजानन्द ही भोग नित्य, अविनाशी वैभव अपना |
सारभूत है, व्यर्थ ही मोही, देखे झूठा सपना ||
यों ही चिंतन चले ह्रदय में, आप वर्तते ज्ञाता |
क्षण-क्षण बढ़ती भाव-विशुद्धि, उपशमरस छलकाता ||
एक वर्ष छद्मस्थ रहे प्रभु, हुआ न श्रेणी रोहण |
चक्री शीश नवाया तत्क्षण, हुआ सहज आरोहण ||
नष्ट हुआ अवशेष राग भी,केवल-लक्ष्मी पाई |
अहो अलौकिक प्रभुता निज की, सब जग को दरशाई ||
हुए अयोगी अल्प समय में, शेष कर्म विनशाए |
ऋषभदेव से पहले ही प्रभु, सिद्ध शिला तिष्ठाए ||
आप सामान आत्मदृष्टि धर, हम अपना पद पावें |
भाव नमन कर प्रभु चरणों में, आवागमन मिटावें ||
ॐ ह्रीं श्री बाहुबलीजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णांर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

(सोरठा)
बाहुबली भगवान, दर्शाया जग स्वार्थमय |
जागे आत्मज्ञान, शिवानन्द मैं भी लहूँ ||
|| पुष्पाजलिं क्षिपामि ||

Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’

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