श्रद्धा ने ज्ञायक प्रभु स्वीकारा | Shraddha ne gyayak prabhu sweekara

(तर्ज : आओ भाई तुम्हें सुनायें… )

श्रद्धा ने ज्ञायक प्रभु स्वीकारा, ज्ञान में ज्ञायक समाय रे।
अनन्तानुबन्धी कषाय विनाशी, स्वरूपाचरण प्रगटाय रे॥1॥

संयोगाधीन दृष्टि अब छूटी, अतीन्द्रिय सुख प्रगटाय रे।
इष्ट-अनिष्ट कोई नहीं भासे, समता सहज ही रहाय रे॥ 2॥

चारित्र में हो जावे शुभाशुभ भाव, श्रद्धा करे ये हेय रे।
मेरे नहीं अति भिन्‍न पर भाव, मेरा स्वरूप आदेय रे॥ 3॥

चारित्र की अस्थिरता से होवे दोष उनके प्रति होवे खेद रे।
श्रद्धा कहे ये तो मुझसे बाहर, मैं तो अभेद, अखेद रे॥ 4॥

सर्व गुणांश सम्यक्त्व प्रगटते, शुद्ध प्रवाह बहाय रे।
मिथ्यात्व भागा, रागादि भाग रहे, कर्म रहे विनशाय रे॥ 5॥

संवर-निर्जरा बढ़ती है प्रतिक्षण, मुक्ति समीप मेरे आय रे।
यथा योग्य पदवी व्यवहार हो पर भिन्‍न रहाय रे॥ 6॥

साधु दशा होगी श्रेणी आरोहण, अरहंत दशा भी आय रे।
अल्पकाल में भव से पार हो, सिद्धालय तिष्ठाय रे॥ 7॥

Artist: ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Source: स्वरूप-स्मरण