शांत मुद्रा निहारी जो अरिहंत की | Shant Mudra Nihari jo Arihant ki

शांत मुद्रा निहारी जो अरिहंत की,
मेरी अखियां खुली की खुली रह गईं।
झलके पर्याय जिसमें अनंतों मगर,
जो जहाँ थी चढ़ी की चढ़ी रह गई।
शांत मुद्रा…

सारे जग के हो कर्ता जगत ये कहे,
पर के कर्तृत्व का भार सहता रहे।
जब ये जाना अकर्ता स्वभावी हो तुम,
कर्ता बुद्धि पड़ी की पड़ी रह गई।
शांत मुद्रा…

इंद्रियाँ हैं मगर इंद्रिय सुख नहीं,
ज्ञान में पर है पर, ज्ञान पर में नहीं।
ज्ञान रहता है स्व-पर प्रकाशी भले,
परिणति निज में अड़ी की अड़ी रह गई।
शांत मुद्रा…

पुण्य के फल में अरिहंत होते नहीं,
पुण्य का फल फले बाह्य में दीखता।
औदयिकी क्रिया बन गई क्षायिकी,
बात ये ही खरी की खरी रह गई।
शांत मुद्रा…

कुछ न कह कर भी तुमने है सब कह दिया,
कुछ न देकर भी तुमने है सब दे दिया।
जब से मुक्ति को तुम हे प्रभु! भा गए,
वो तो तुमसे जुड़ी की जुड़ी रह गई।
शांत मुद्रा…

Artist: आ० संजीव जी उस्मानपुर

Thank you for this. @Prasukkj