अपने मन को नहीं भटकाओ।
वीतराग प्रभु शरण में आओ।
गुरु निर्ग्रन्थ भजो सुखकारी,
जिनवाणी समझो हितकारी ॥
धर्म अहिंसा है मंगलमय,
जीवघात है महाक्लेशमय ।
सत्य वचन बोलो सुखदायी ।
छोड़ो चोरी अति दुःखदायी ॥
शील धर्म को धारण करना,
परिग्रह की तृष्णा को तजना ।
शर्त लगाना छोड़ो भाई,
करो समर्पण आनन्ददाई ॥
कोई नशा कभी मत करना,
शुद्ध सात्त्विक भोजन करना ।
अण्डा, माँस कहीं मत खाना,
नहीं शिकार का भाव भी लाना ॥
नहीं अन्याय, अनीति करना,
लोकनिन्द्य कोई काम न करना ।
बड़े जनों का आदर करना,
छोटों से स्नेह भी धरना ॥
उत्तेजित तुम कभी न होना,
बीज दुःख के नहीं तुम बोना।
मिथ्या अहंकार नहीं लाना,
परवस्तु पर मन न *चिगाना ॥
सब ही काम समय पर करना,
भेदविज्ञान हृदय में धरना ।
भूल कभी भी नहीं छिपाना,
कभी बहाना नहीं बनाना ॥
अच्छी शिक्षा सदा ही लेना,
योग्य दान भी सहज ही देना।
इच्छाओं के वश मत होना,
अपना धर्म कभी मत खोना ॥
*चिगाना- ललचाने का भाव।
रचयिता:- आ० ब्र० रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’