सर्वज्ञ-शासन जयवन्त वर्ते, निर्ग्रन्थ-शासन जयवन्त वर्ते ।।
यही भाव अविच्छिन्न रहता है मन में, सर्वज्ञ-शासन जयवन्त वर्ते ।।
निशंक निर्भय रहें हम सदा ही, अरे स्वप्न में भी न कुछ कामना हो।।
निरपेक्ष रहकर करें साधना नित, कभी ग्लानि भय या अनुत्साह ना हो।
बातों में आवें न जग की कदापि, चमत्कार लखकर नहीं मूढ़ होवें।।
अरे पर की निन्दा, प्रशंसा स्वयं की, करके समय शक्ति बुद्धि न खोवें।।
चलित को लगावे सहज मुक्ति पथ में, व्यवहार सबसे सहज प्रेममय हो।
दुर्भाव मन में भी आवे कभी ना, निर्दोष सम्यक्त्व जयवन्त वर्ते ।।(1)
अभ्यास हो तत्त्व का ही निरन्तर, संशय विपर्यय अरे दूर भागे।
जिनागम पढ़े और पढ़ावें सभी को, सदा ज्ञान दीपक सुजलता हो आगे।।
जिनआज्ञा हो शीश पर नित हमारे, समाधान हो ज्ञानमय सुखकारी।
गुरुवर का गौरव सदा हो हृदय में, बहे ज्ञानधारा सुआनन्दकारी।।
वस्तुस्वभावमयी धर्म सुखमय, प्रकाशे जगत में अनेकान्त सम्यक्।।
ऊँचा रहे ध्वज सदा स्याद्वादी, निर्दोष सद्ज्ञान जयवन्त वर्ते ।।(2)
अहिंसामयी हो प्रवृत्ति सहज ही, जीवन का आधार हो सत्य सुखमय।
अचौर्य धारें पर प्रीति त्यागें, परमशील वर्ते रहें सहज निर्भय।।
महाक्लेशकारी है आरम्भ परिग्रह, उसे छोड़ लग जायें निज-साधना में।
धुल जायें सब मैल समता की धारा से, बढ़ते ही जायें सुआराधना में।।
होवें जितेन्द्रिय परम तृप्त निज में, एकाग्रता हो परम मग्नता हो।
साक्षात् साधन मुक्ति का सुखमय, निर्दोष चारित जयवन्त वर्ते ।।(3)
रत्नत्रय मुक्ति का मार्ग है अद्भुत, चैतन्य रत्नाकर अद्भुत से अद्भुत।
होवें निमग्न अहो सर्व प्राणी, वीतरागी शासन जयवन्त वर्ते।।
जयवन्त वर्ते सर्वज्ञ देव, जयवन्त वर्ते निर्ग्रन्थ गुरुवर।
जयवन्त वर्ते श्री जिनवाणी, जिनधर्म, जिनतीर्थ जयवन्त वर्ते ।।
शुद्धात्मा का श्रद्धान वर्ते, अनुभूति निर्मल अविच्छिन्न वर्ते।
आवागमन से निर्मुक्ति होवे, मुक्ति का साम्राज्य जयवन्त वर्ते ।।(4)
Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
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