सांची तो गंगा यह वीतराग वाणी |
अविच्छिन्न धारा निजधर्म की कहानी ||
जामें अति ही विमल, अगाध ज्ञान पानी |
जहाँ नहीं संशयादि, पंक की निशानी ||(1)
सप्तभंग जहँ तरंग, उछलत सुखदानी |
संत चित मरालवृन्द, रमें नित्य ज्ञानी ||(2)
जाके अवगाहनतैं, शुद्ध होय प्रानी |
भागचन्द निहचै, घटमाहिं या प्रमानी ||(3)