भोंदू भाई! समुझ सबद यह मेरा।
जो तू देखे इन आंखिन सौं, तामैं कछु न तेरा।।टेक।।
ए आंखें भ्रम ही सौं उपजी, भ्रम ही के रस पागी।
जहँ जहँ भ्रम तहँ-तहँ इनको श्रम, तू इन ही कौ रागी।।१।।
ए आखें दोउ रची चाम की, चामहि चाम बिलोवै।
ताकी ओट मोह निद्रा जुत, सुपन रूप तू जोवै।।२।।
इन आंखिन कौ कौन भरोसौ, एक विनसें छिन माही।
है इनको पुद्गल सौं परचै, तू तो पुद्गल नाहीं।।३।।
पराधीन बल इन आखिन कौ, विनु प्रकाश न सूझै।
सो परकाश अगनि रवि शशि को, तू अपनौं कर बूझे।।४।।
खुले पलक ए कछू इक देखहि, मुंदे पलक नहिं सोऊ।
कबहूँ जाहि होंहि फिर कबहूँ, भ्रामक आँखें दोऊ।।५।।
जंगम काय पाय एक प्रगटै, नहिं थावर के साथी।
तू तो मान इन्हें अपने दृग, भयौ भीम को हाथी।।६।।
तेरे दृग मुद्रित घट-अन्तर, अन्ध रूप तू डोलै।
कै तो सहज खुलै वे आंखें, कै गुरु संगति खोले।।७।।