Artist: आ . ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
झूठे सर्व विकल्प शरण हैं, एक ही शुद्धातम।
निर्विकल्प आनंनमयी प्रभु शाश्वत परमातम।।
है अत्यन्ताभाव सदा फिर कोई क्या कर सकता।
व्यर्थ विकल्पों से उपजी क्या पीड़ा हर सकता।।
द्रव्यदृष्टि से देखो तुम तो सदाकाल सुखरूप।
परभावों से शून्य सहज चिन्मात्र चिदानंद रूप।।
नहीं सूर्य में अंधकार त्यों, दुख नहीं ज्ञायक में।
दुख का ज्ञाता कहो भले पर ज्ञायक नहीं दुख में।।
ज्ञायक तो ज्ञायक में रहता, ज्ञायक, ज्ञायक ही।
दल्प नहीं यह परमसत्य है, अनुभवयोग्य यही।।
भूल स्वयं को व्यर्थ आकुलित हुए फिरो भव में।
जानो जाननहार स्वयं आनन्दप्रगटे निज में।।
हुआ न होगा कोई सहाई झूठी आश तजो।
नहीं जरूरत भी तुमको अब अपनी ओर लखो।।
पूर्ण स्वयं में, तृप्त स्वयं में आप ही आप प्रभो।
सहज मुक्त हो, स्वयं सिद्ध हो, जाननहार रहो।।