पर लक्ष्य तजो, निज तत्त्व भजो, आत्मन् निज में ही शांति मिले।
जग का परिणमन स्वतंत्र अरे, तेरा विकल्प तहाँ नहीं चले। टेक।।
पर चिंता में क्यों मूढ़ बना? यह स्वर्णिम अवसर खोता है।
क्रमबद्ध सभी परिणमन सदा, जो होना है सो होता है।।
स्वयमेव पंचसमवाय मिले, होनी टाले से नहीं टले ।।1।।
सीता अनुकूल बनाने में, रावण ने क्या क्या नहीं किया।
पर सीता नहीं अनुकूल हुई, अपयश से मर कर नरक गया।।
मिल गया धूल में सब वैभव, अभिमान किसी का नहीं चले।।2।।
फिर जो सब जग को ही अपने, अनुकूल बनाने की ठाने।
कैसे सुखशांति मिल सकती, झूठा कर्त्तापन यदि माने ।।
धर भेदज्ञान निरपेक्ष रहो, समता से सर्व विभाव टले ।।3।।
प्रभु की भी तूने नहीं मानी, तो जग कैसे तेरी माने ।
तज दुर्विकल्प हो निर्विकल्प, आराधन का उद्यम ठाने ।।
हो जीवन सफल सु आत्मध्यान से, सहजहिं कर्मकलंक जले ।।4।।
यद्यपि विकल्प ज्ञानी को भी हो, जीव धर्म में लग जावे।
तब सहज होय उपदेश, शास्त्र रचना आदिक भी हो जावे।।
पर लेश नहीं कर्तृत्व उन्हें, अंतर में भेदविज्ञान चले ।।5।।
अनुसरण योग्य ज्ञानी का भी, बस वीतराग विज्ञान अहो।
हो धन्य घड़ी परमानन्दमय, निज में ही सहज मग्नता हो।।
ज्ञायक हो ज्ञायक सहज रहो, सम्यक् संयम सुखरूप चले।।6।।
शुभभाव भूमिकायोग्य सहज ही, परिणति में आ जाता है।
ये भी परिवार मोह का ही, संतोष न इनमें आता है ।।
स्वाश्रय से ही पुरूषार्थ बढे, फिर निजानन्द में लीन रहे।।7।।
Artist - ब्र.श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’
Singer: @Deshna