ज्ञानानन्दी पूर्ण निराकुल,
सदा प्रकाशित चेतन रूप ।
सहजानन्दी शुद्ध स्वरूपी,
अविनाशी मैं आत्म स्वरूप ॥ टेक ॥
स्व-पर प्रकाशी ज्ञान हमारा,
चिदानन्दघन प्राण हमारा ।
स्वयं ज्योति सुख धाम हमारा,
रहे अटल यह ध्यान हमारा ॥
देह मरे से मैं नहीं मरता,
अजर-अमर हूँ आत्म स्वरूप॥1॥
देव हमारे श्री अरहन्त,
गुरु हमारे निर्ग्रन्थ सन्त ।
धर्म हमारा करुणावन्त,
करता सब भव दुःख का अन्त ॥
निज की शरणा लेकर हम भी,
प्रकट करें परमातम रूप ॥ 2 ॥
सात तत्त्व का निर्णय कर लें,
स्व-पर भेद-विज्ञान सु कर लें ।
निज स्वभाव की दृष्टि धरलें,
राग-द्वेष सब ही परिहर दें ॥
बस अभेद में तन्मय होवें,
भूलें सब ही भेद विरूप ॥3॥
रचयिता - बाल ब्र. श्री रवींद्र जी आत्मन
Source - स्वरूप स्मरण