साधो छोडौ विषै विकारी, जातैं तोहि महादुख कारी |
जौ जैन धरम कौं ध्यावै, सो आत्मीक सुख पावै || टेक ||
गज फरस विषै दुख पाया, रस मीन गंध अलि पाया |
लखि दीप सलभ हित कीना, मृग नाद सुनत जिय दीना || १ ||
ये एक एक दुखदायी, तू पंच रमत है भाई |
ऐ कौने सीख बताई, तुम्हरे मन कैसें आई || २ ||
इन माहिं लोभ अधिकाई, यह लोभ कुगति कौ भाई |
सो कुगति माहिं दुख भारी, तू त्यागि विषै मतिधारी || ३ ||
ए सेवत सुख से लागै, फिर अन्त प्राण कौ त्यागै |
तातैं एक विषफल कहिये, तीन कौं कैसें करि गहिये || ४ ||
तब लौं विषय रस भावै, जब लौं अनुभौ नहिं आवै |
जिन अमृत पान नहिं कीना, तीन और रस भवि चित दीना || ५ ||
अब चहत कहा लौं कहिये, कारज कहि चुप है रहिये |
यह लाख बात की एकै, मति गहौ विषै का टेकै || ६ ||
जौ तजै विषै की आसा, ‘द्यानत’ पावै सिववासा |
यह सतगुरु सीख बताई, काहूँ विरलै के जिय आई || ७ ||
Artist- पं. द्यानतराय जी