रोम-रोम में नेमि कुंवर के उपशम रस की धारा-2 ।
राग-द्वेष के बन्धन तोड़े, वेश दिगम्बर धारा ।।टेक।।
ब्याह करन को आये, संग बराती लाये।
पशुओं को बन्धन में देखा, दया सिंधु लहराये ।।
धिक्-धिक् जग की स्वारथ वृत्ति, कहीं न सुक्ख लघारा।।1।।
राजुल अति अकुलाए, नौ भव की याद दिलाये।
नेमि कहें जग में न किसी का, कोई कभी हो पाये।
रागरूप अंगारों द्वारा, जलता है जग सारा ।।2।।
नौ भव का सुमिरण कर नेमी, आतम तत्त्व विचारें।
शाश्वत ध्रुव चैतन्यराज की, महिमा चित्त में धारें ॥
लहराता वैराग्य सिंधु अब, भायें भावना बारा।।3।।
राजुल के प्रति राग तजा है, मुक्ति वधु को ब्याहें।
नग्न दिगम्बर दीक्षा धरकर, आतम ध्यान लगावें।।
भव बन्धन का नाश करेंगे, पावें सुक्ख अपारा ।।4।।
- पं. अभयकुमार जी, देवलाली