रचयिता : तत्त्ववेत्ता डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
अपने में एकत्व और पर से विभक्तता।
इसको कहते हैं एकत्व-विभक्त आतमा।।
यह एकत्व-विभक्त आतमा समयसार में।
समझाया है कुन्दकुन्द आचार्यदेव ने।।१॥
अनन्त गुणों एवं असंख्य परदेशों की यह।
और अनन्तानन्त त्रिकाली पर्यायों की।।
पूरी अखण्डता ही है रे एकत्व हमारा।
परद्र॒व्यों से अरे भिन्नता ही विभक्तता।।२।।
इस एकत्व-विभक्त आतमा का आराधन।
ज्ञान-ध्यान- श्रद्धान यही है इसका साधन।।
ज्ञान-ध्यान-साधन-आराधन कुछ भी कह लो।
यह ही सच्चा मोक्षमार्ग है यही समझ लो।।३।।
यह एकत्व-विभक्त आतमा परद्रव्यों का।
स्वामी-कर्त्ता-भोक्ता कैसे हो सकता है?॥।
यह असीम आतम अपने में ही सीमित है।
इसीलिए तो सीमन्धर कहते हैं इसको।। ४।।
अपने में सीमित होकर भी यह शुद्धातम।
है असीम ज्ञेयों का ज्ञायक यह परमातम।।
यह अपार ज्ञेयों के पार को पा लेता है।
इसकी गौरव गरिमा का न आर-पार है।। ५।।
यद्यपि जाने सभी द्रव्य-गुण-पर्यायों को।
पर उनमें कुछ भी कर सकता नहीं आतमा।।
कर्त्ता-भोक्ता सभी द्रव्य हैं अपने-अपने।
स्वामी भी हैं सभी द्रव्य बस अपने-अपने।। ६।।
जाने जाते सभी द्रव्य इस आत्मद्रव्य से।
अरे एक गुण ऐसा भी है सब द्रव्यों में।।
प्रमेयत्वगुण कहते हैं उसको श्रीजिनवर।
उसके कारण सभी द्रव्य जाने जाते हैं।।७॥
अरे ज्ञान से जाने सबको यह परमातम।
प्रमेयत्व से सभी द्रव्य जाने जाते हैं।।
अरे ज्ञान है अतः जानता है यह आतम।
प्रमेयत्व है अतः आतमा जाना जाता।।८।।
शेष सभी में ज्ञान नहीं है नहीं जानते।
प्रमेयत्व से केवल वे जाने जाते हैं।।
अतः जानना लक्षण है चेतन आतम का।
चेतनता ही चेतन की गौरव गरिमा है।। ९।।
अरे चेतना दो प्रकार की होती जग में।
अज्ञानचेतना ज्ञानचेतना के भेदों से।।
अज्ञानचेतना भी होती है दो प्रकार की।
कर्मचेतना और कर्मफल के भेदों से।। १०॥
पर के करने-धरने में ही अरे चेतना।
कर्मचेतना कहलाती है कर्त्तापन से।।
और कर्म के फल में ही रत रहना भाई |
अरे कर्मफल कहलाती है भोक्तापन से।। ११॥।
पर का कर्त्ता-भोक्तापन अज्ञानचेतना।
ज्ञाता-दृष्टा रहना ही है ज्ञानचेतना।।
ज्ञानचेतना मुक्ति है मुक्ति का मग है।
अज्ञानचेतना भव का कारण कही गई है।। १२।।
अपने आतम में अपनापन ज्ञानचेतना।
आतम में ही जमना-रमना ज्ञानचेतना।।
अरे आतमा का अनुभव है ज्ञानचेतना।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण है ज्ञानचेतना।।१३।।
सम्यग्दर्शनज्ञानचरण मुक्ति का मग है।
और स्वयं में अपनापन ही सम्यग्दर्शन।।
स्वपरभेदविज्ञान हि सम्यग्ज्ञान कला है।
सम्यक्चारित्र एकमात्र अकषायभाव है।। १४।।
आत्मध्यान में ही पैदा होते है तीनों।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण निश्चय से जानो।।
तीनों ही हैं आत्मरूप भूतार्थ बात यह।
शेष सभी हैं अभूतार्थ व्यवहार बखानो।।१५।।
निश्चय अर व्यवहार मुक्तिमग दोनों ही तो।
आत्मध्यान में ही तो रे पैदा होते हैं।।
अतः ध्यान ही निज आतम का अरे निरन्तर।
करना है कर्तव्य कहा है ज्ञानिजनों ने।।१६।।
परमशुद्धनिश्चयनय का है विषयभूत जो।
उस आतम में अपनापन है सम्यग्दर्शन।।
और उसे निजरूप जानना ज्ञान कहा है।
तथा उसी में जमना-रमना ध्यान कहा है।।१७॥
सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान अर ध्यान धरम है।
शुद्धातम का ध्यान धरम का परम मरम है।।
अरे ध्यान के पहले उसका ज्ञान जरूरी।
और ज्ञान के साथ विमल श्रद्धान जरूरी | १८।
अरे ज्ञान-श्रद्धान बिना न ध्यान कभी हो।
ज्ञान-ध्यान-श्रद्धा बिन न कल्याण कभी हो।।
यदि करना कल्याण आतमा का हे भाई !
ज्ञान-ध्यान-श्रद्धान करो आतम का भाई।। १९।।
ज्ञान-ध्यान-श्रद्धान आत्मा के आश्रय से।
होते हैं तो निज आतम पहिचान करो तुम।।
जिन-आगम के आश्रय से अर सदुपदेश से।
करो प्रमाणित उसे आत्मा के अनुभव से।। २०।।
तनरूपी मन्दिर में है भगवान आतमा।
तन जड़ है पर चेतन है भगवान आतमा।।
यद्यपि वे हैं एकक्षेत्र-अवगाही किन्तु।
फिर भी वे हैं पृथक्-पृथक्– जिन ऐसा कहते।। २१।।
रे परमातम देव विराजे मनमन्दिर में।
एवं आतमदेव विराजे तनमन्दिर में।।
मनमन्दिर के देव सातिशय पुण्य बन्धावें।
तनमन्दिर के देव हमें शिवपुर पहुँचावें।। २२।।
मनमन्दिर के देव परमप्रिय परमातम हैं।
तनमन्दिर का देव हमारा ही आतम है।।
परमातम के चरणों में अति भक्तिभाव से।
करता हूँ मैं सत् श्रद्धा के सुमन समर्पित।।२३।।
अपने में अपनेपन की महिमा अद्भुत है।
अपने में अपनापन करता हूँ मैं अर्पित ।।
अधिक कहूँ क्या हे परमातम! निज आतम में।
अपनेपन से हो जाता हूँ पूर्ण समर्पित।।२४ ।।
स्व-पर भेदविज्ञान धर्म का मूल तत्त्व है।
इसे प्राप्त कर भव्यजीव निज आतम पाते।।
निज आतम में अपनापन स्थापित कर वे।
निज आतम के ज्ञान-ध्यान में थिर हो जाते।।२५।।
बाँटो तुम दो भागों में सारी दुनियाँ को।
छाँटो फिर अपना आतम जो ज्ञानस्वभावी।।
ज्ञानतत्त्व अर ज्ञेयतत्त्व दो रूप जगत है।
ज्ञानस्वभावी आतम बाकी ज्ञेयतत्त्व हैं।।२६।।
ज्ञान ज्ञेय - दोनों बातें हैं आत्मतत्त्व में।
सभी अनातम भाव अकेले ज्ञेय भाव है।।
पर ज्ञेयों से भिन्न आतमा ज्ञानस्वभावी।
परम तत्त्व निज आतम ज्ञानानन्द स्वभावी।। २७।।
अरे देह में रहकर भी यह देह नहीं है।
यद्यपि इसमें राग किन्तु यह राग नहीं है।।
पर्यायों से पार आतमा ज्ञान पिण्ड है।
गुणभेदों से भिन्न प्रभु अति ही प्रचण्ड है।।२८।
अरे ज्ञानघनपिण्ड आतमा निर्विकल्प है।
आनन्द का रसकन्द आतमा परमतत्त्व है।।
निर्विकल्प यह जीव विकल्पों में नहीं आता।
आतम अनुभवगम्य अतः अनुभव में आता।। २९।।
करो भावना अरे निरन्तर भेदज्ञान की।
भेदज्ञान की महिमा में नित चित्त लगाओ।।
अविरल धारा बहे ज्ञान में भेदज्ञान की।
भव्य भावना रहे ध्यान में भेदज्ञान की।।३०||
भेदज्ञान के इस अविरल धारा प्रवाह से।
कैसे भी कर प्राप्त करे जो शुद्धातम को॥।।
और निरन्तर उसमें ही थिर होता जावे।
पर परिणति को त्याग निरन्तर शुध हो जावे।।३१॥।
भेदज्ञान की शक्ति से निजमहिमा रत को।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि निश्चित हो जावे।।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि होने पर उसके ।
अतिशीघ्र ही सब कर्मों का क्षय हो जावे।।३२।।
आत्मतत्त्व की उपलब्धि हो भेदज्ञान से।
आत्मतत्त्व की उपलब्धि से संवर होता।।
इसीलिए तो सच्चे दिल से नितप्रति करना।
अरे भव्यजन! भव्यभावना भेदज्ञान की।। ३३।।
अरे भव्यजन! भव्यभावना भेदज्ञान की।
सच्चे मन से बिन विराम के तब तक भाना।।
जब तक पर से हो विरक्त यह ज्ञान ज्ञान में।
ही थिर न हो जाय अधिक क्या कहें जिनेश्वर।।३४ ।
अब तक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे।
महिमा जानो एक मात्र सब भेदज्ञान की।।
और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं।।३५॥
भेदज्ञान से शुद्धतत्त्व की उपलब्धि हो।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि से रागनाश हो।।
रागनाश से कर्मनाश अर कर्मनाश से ।
ज्ञान ज्ञान में थिर होकर शाश्वत हो जावे।।३६।।
मुक्तिमार्ग यह बतलाया अरहन्त देव ने।
यह उपलब्ध सदा हमको है जिनवाणी में।।
गहराई से पढ़ें मनन चिन्तन कर समझें।
समझ न आवे तो ज्ञानी गुरुओं से समझें।।३७॥
मुक्तिमार्ग के नेता ज्ञाता विश्व तत्त्व के।
वस्तु का स्वरूप समझाते दिव्यध्वनि से।।
हित उपदेशक अनेकान्त के स्याद्वाद के।
परम वीतरागी होते अरहन्तदेव हैं।। ३८ ||
अनेकान्तमय सप्त तत्त्व की प्रतिपादक अर।
वीतरागता की पोषक जो जिनवर वाणी॥।
परम अहिंसक सदाचार की भी पोषक जो।
अरिहन्तों की दिव्यध्वनि वह जिनवाणी है।। ३९।।
हर अन्तर्मुहूर्त में जो अन्तर्मुख होते।
महा तपस्वी परम अहिंसक महाव्रती जो।।
नय-प्रमाण के विशेषज्ञ हैं शान्तचित्त हैं।
ऐसे अद्भुत नग्न दिगम्बर जैन गुरु हैं।।४०||
ऐसे देव-शास्त्र-गुरु एवं नव तत्त्वों के।
श्रद्धानी श्रावक होते हैं सम्यग्दृष्टि।।
यह व्यवहार कथन है लेकिन निश्चय से तो।
आतम के अनुभवी जीव हैं सम्यग्दृष्टि।। ४१ ||
देहादिक परद्वव्यों में अपनापन जिनके ।
रागादि विकारी भावों में भी अपनापन है।।
पर्यायों में रमे रहें अपनापन करके ।
भिथ्यादृष्टि जीव डूबते भवसागर में || ४२ ||
करणलब्धि में एक साथ पैदा होते हैं।
निश्चय दर्शन-ज्ञान-चरित तीनों ही निश्चित।।
पूरण होते हैं क्रमशः: यह बात अलग है।
पर पैदा होते हैं वे तो एक साथ ही।।४३॥
करणलब्धि भी ध्यान रूप है सब जग जानें।
कर्मनाश आरम्भ यहीं से होता भाई।।
मिथ्यात्वकर्म के साथ अनन्त-अनुबन्धी का भी।
तो अभाव भी इसी अवस्था में होता है।। ४४।।
आत्मज्ञान अर आत्मध्यान ही परम धरम हें।
इनसे ही भव का अभाव होता है भाई।।
भव्यजीव इनके बल पर भवसागर तरते।
अधिक कहें क्या भवसागर से पार उतरते।।४५।।
अतः आत्मा को जानों उसमें जम जावो।
सहज जानना होने दो उसमें रम जावो॥
अरे जानने का तनाव मत करो बंधुवर।
सहज जानना सहज भाव से ही होने दो।।४६॥
सहज जानने का विकल्प भी नहीं करो तुम।
पार पड़ेगी नहीं विकल्पों से हे भाई!।।
क्योंकि विकल्पातीत कहा भगवान आत्मा।
विकल्पजाल में वह कैसे आ सकता भाई ?।।४७।।
सहज ज्ञान को सहजभाव से ही होने दो।
सहज ध्यान को सहजभाव से ही होने दो।।
ज्ञान-ध्यान में सहज सहजता ही होती है।
रंचमात्र असहज होने का काम नहीं है।। ४८।।
असहज होना चिन्तित होने जैसा ही है।
एवं चिन्ता के निरोध को ध्यान कहा है।।
चिन्तन भी तो चिन्ता का ही एक रूप है।
अतः ध्यान में चिन्तन का भी तो निरोध है।।४९।|
सहज जानना और जानते रहना केवल।
सहज भाव में ज्ञान ज्ञान बस ज्ञान-ज्ञान है।।
अरे जानना ज्ञान जानते रहना भाई।।
ज्ञानभाव की पुनरावृत्ति सहज ध्यान है।। ५०।।
प्रतीसमय का ज्ञेय ज्ञान का निश्चित ही है।
और ज्ञान का उसमें ही स्थिर हो जाना।।
शान्त भाव से अरे एकदम शांत भाव से।
उसमें ही जम जाना एकदम थिर हो जाना।।५१।।
यह थिरता ही ध्यान कही जाती है भाई !।
इसकी ही महिमा अपार है पार नहीं है।।
यह है वचनातीत विकल्पातीत कही है।
यह शब्दों में कही नहीं जा सकती भाई !।। ५२।।
यह प्रयत्न से साध्य नहीं है सहज साध्य यह।
सहज साध्य ही इसे कहा है जिनशासन में।।
आगे भी तो सहज भाव में ही रहना है।
यहाँ यत्न की आकुलता में क्यों रहते हो ?।। ५३।।
है आकुलता का मार्ग नहीं है जिनशासन यह।
इसमें आकर भी क्यों तुम व्याकुल होते हो ?।।
व्याकुलता से बचने को इसमें आये हो।
फिर भी क्यों इतने भारी व्याकुल होते हो ?।। ५४।।
मुक्ति में तो अनन्तकाल तक सहज रहोगे।
मुक्तिमार्ग में भी तुम क्यों व्याकुल होते हो ?।।
आकुलता-व्याकुलता तो केवलदुखमय है।
वह मुक्तिमारग में कैसे हो सकती है?॥५५।
मुक्ति अर मुक्तिमग दोनों ही सुखमय हैं।
अर भगवान आतमा भी आनन्दस्वभावी।।
अरे ज्ञान का पिण्ड और सुखकन्द आतमा।
अनन्त गुणों का गोडाउन भगवान आतमा।। ५६।।
अरे त्रिकाली ध्रुव है यह भगवान आतमा।
असंख्यात परदेशी अनादि-अनन्त आतमा।।
इसके ही आश्रय से मुक्तिमार्ग पनपता।
इसका दर्शन-ज्ञान-चरित मुक्तिमारग है।। ५७।।
दर्शन-ज्ञान-चरण की पूरणता मुक्ति है।
शान्त निराकुलभाव निरन्तर ही रहता है।।
सहजभाव ही मुक्ति का सच्चा स्वरूप है।
असहजता तो सदा अरे संसाररूप है।। ५८ ||
अरे अशुद्धि तो आश्रव है बन्धरूप है |
शुद्धि की उत्पत्ति को संवर कहते है।।
अर शुद्धि की वृद्धि तो निर्जरा तत्त्व है।
अर शुद्धि की पूरणता को मोक्ष कहा है।।५९।।
आनन्द का रसकन्द ज्ञान का पिण्ड मोक्ष है।
अनन्त वीर्य का धनी चण्ड परचण्ड मोक्ष है।।
अरे अनन्तानन्त गुणों का पिण्ड मोक्ष यह।
सादी फिर भी रहे अनन्तानन्त काल तक।। ६० ||
यह सब होगा सहज एकदम सहज समझ लो।
मुक्ति का तो मार्ग एकदम सहज सरल है।।
जब तक तुम न हुये सहज तब तक ही समझो।
तब तक गोते खाते रहना भवसागर में।।६१॥
भवसागर में गोते खाना इष्ट नहीं हो।
तो तुम सभी परिणमन को ही सहज समझ लो।।
अरे आज तक कुछ भी असहज नहीं हुआ है।
जो कुछ होता सभी सहज ही तो होता है।।६२॥
चौबीसों तीर्थंकर का यह कथन समझ लो।
सौ इन्द्रों की उपस्थिति में कहा गया है।।
जिनवाणी में जगह-जगह पर यह फरमाया।
आँख खोलकर देखो तो सब जगह मिलेगा।। ६३ ||
काललब्धि के आने पर ही हाथ लगेगा।
और पाँच समवायों के बिन काम न होगा।।
एक बार तुम निर्विकल्प होकर के भाई!
सहजभाव से स्वयं समझ करके तो देखो।।६४।।
मुक्तिमार्ग में आये तो भी बोझा लेकर।
क्रियाकाण्ड का बोझा माथेपर धारण कर।।
सारे जग की सभी समस्यायें ढो-ढोकर।
मरे जा रहे अरे निरन्तर चिन्तित होकर।।६५॥
इस जग की तुम केवल चिन्ता ही करते हो।
कुछ भी करना अरे किसी का शक नहीं है।।
जग की चिन्ता छोड बन्धु अपने में आओ।
अपने में ही जमो-रमो अपने को ध्याओ।।६६।।
सदाचार से रहो शुद्ध-सात्विक भोजन लो।
और अहिंसक वृत्ति ही अनुपम वृत्ति है।।
न्याय-नीति से वर्तन करना अनुपमेय है।
पर यह सबकुछ सहजभाव से ही करना है।।६७।।
सहजभाव से करना क्या सब कुछ होना है।
सहजभाव ही तो सच्चा मुक्ति का मग है।।
असहज होना ही भव है भव का मग भाई !।
कर्त्तापन के बोझे से असहज रहते हो।।६८ ||
कर्तापन का बोझ उतारो सहजभाव से।
सहजभाव से सहज सहजता में आ जावो॥।।
आना-जाना तो केवल भाषा है भाई!
आना-जाना कहीं नहीं है मुक्तिमार्ग में।। ६९ ||
अपने में ही रहना है बस नन्तकाल’ तक।
अपने में ही रहना है बस केवल मुक्ति।।
मुक्ति तो केवल अपनी परमात्म दशा है।
सहजानन्दी एवं परमानन्ददशा है।।७०।।
आतम की दुर्दशा अहो यह भवसागर है।
इसमें रहना ही आतम की मजबूरी है।।
अरे आज तक इसमें रहकर नन्त’ दुख सहे।
और धर्म के नाम करी बस मजदूरी है।।७१।।
काललब्धि आने पर सब कुछ समझ आवेगा।
समवायों के मिलने पर ही काम बनेगा।।
धीरज धारो धीरजता ही एक मार्ग है।
यथासमय सब सहजभाव से सबकुछ होगा।। ७२।।
शान्त शान्त तुम सहजभाव से शान्त रहो तुम।
आकुलता से तो कुछ भी न होना जाना।।
सब कुछ पहले से निश्चित सर्वज्ञ जानते।
उसमें कुछ भी बदल नहीं हो सकता भाई!।। ७३।।
जो कुछ जैसा आज हो रहा है दुनियाँ में।
उसके बारे में वर्द्धमान से पूँछा जाता।।
बतलाते या नहीं तुम्हारा मन क्या कहता ?।
बतला देते तो फिर तो सब नक्की ही था।।७४।।
वे शान्त रहे उनको कुछ भी परिणाम न आया।
सहजभाव से रहे जानते और देखते।।
अनन्तवीर्य के धनी किन्तु कुछ भाव न आया।
फिर तुम भी क्यों इतने आकुल-व्याकुल होते ?।। ७५।|
उनके सुख में रंचमात्र भी भंग पड़ा ना।
सहजभाव से शान्तभाव से रहे जानते।।
तुम इतने नीचे-ऊपर क्यों होते भाई !।
सहजभाव से अपने में ही रहो निरन्तर।।७६ ||
सहजभाव से ही रहते हैं सभी जिनेश्वर।
वे ही है आदर्श हमारे सब जग जाने।।
क्यों न चलें हम उनके ही मारग पर भाई!
और न कोई मार्ग निरापद है इस जग में।। ७७।।
सहजभाव से ज्ञाता -दृष्टा रहना ही तो।
एकमात्र है राह सुखी होने की भाई !॥।
सभी जिनेश्वर देव चले हैं इसी राह पर।
इतनी सीधी बात समझ में क्यों न आई?॥ ७८||
कर्त्तापन की बुद्धि से इतने बोझिल हो।
उसके नीचे दबे जा रहे हो क्यों भाई!॥।।
कुछ विचार करने की शक्ति क्षीण हो गई।
इसकारण यह बात समझ में न आ पाई।।७९ ||
फेरफार करने की भावना उचित नहीं है।
जो जैसा हो रहा सहज स्वीकार करो तुम॥।।
व्यर्थ विकल्पों से कुछ भी न होने वाला।
आकुलता ही हाथ लगेगी और नहीं कुछ।। ८० ||
अरे विकल्पों के अनुसार काम ना होते।
अतः निरर्थक ही समझो तुम उनको भाई !॥
किन्तु सार्थक भी कह सकते हो तुम उनको।
कर्मबन्ध में वे निमित्त होते हैं तुमको।।८१॥
अनुभव से है सिद्ध और जिनवाणी कहती।
तथा निरन्तर गुरुदेव भी समझाते हैं।।
बोलो भाई! फिर भी यह मन नहीं मानता।
भवसागर का अभी किनारा बहुत दूर है।।८२॥
आदिनाथ ने समझाया मारीचि न माना।
क्योंकि भव का अभी किनारा बहुत दूर था।
शेर ने माना क्योंकि किनारा पास आ गया।
काललब्धि के बिना अरे कुछ समझ न आता।। ८३।।
भवसागर का अरे किनारा लाना हो तो।
क्या करना है हमें बताओ पूज्य गुरुजी !।।
कुछ भी करना नहीं, सहज होना है भाई !।
अरे सहजता ही में तो सुख-शान्ति समाई।। ८४।।
ज्ञानी! ने जो जाना सब स्वीकार किया वह।
उसमें कुछ भी संशोधन का भाव न आया।।
रहे एकदम शान्त निराकुल अपने में ही।
अपनेपन के साथ हो गये इकदम तन्मय ।।८५॥
पर से इकदम भिन्न न उनमें कुछ कर सकता।
यद्यपि अपने भावों को मैं ही करता हूँ।।
पर अपने में कुछ करने का भार नहीं है।
जो कुछ होना है पहले से ही नक्की है।। ८६।।
केवलज्ञानी ने जानापल-पल का सबकुछ।
भावी में भी जो होना वह भी जाना है।।
वह वैसा ही होगा उनने यह भी जाना।
अतः हमारे माथे पर कुछ भार नहीं है।।८७।।
वह सब स्वीकृत हमें सहज ही है हे जिनवर !।
उसमें कुछ भी फेरफार का भाव नहीं है।।
अतः न कुछ भी करने की आकुलता भाई!।
अतः हमारे जीवन में सुख शान्ति समाई।।८८।।
भवसागर का अरे किनारा जिनका आता।
उनको ही तो सहज सहजता सहज सुहाती।।
है अनन्त संसार उन्हें यह नहीं सुहाती।
उनको तो यह दुनियादारी ही भाती है।।८९।।
अरे हमें तुम निकट भव्य लगते हो भाई !।
और किनारा भवसागर का आया समझो।।
इस सम्बन्धी प्रश्न सहज ही आया तुमको।
इसके लिये तुम्हें देते सौ बार बधाई।। ९०।।
तुमसा साधर्मी पा हम निहाल हो गये।
साधर्मी का मिलन भाग्य से ही होता है।।
आज हमारा महाभाग्य जागा है समझो।
जो हमने तुम जैसा सत’ साधर्मी पाया।।९१।।
साधर्मी का सहज सम्मिलन हमें हुआ है।
उत्साहित है चित्त हमारा अधिक कहें क्या ?।।
सहजभाव की सहज स्वीकृति तुमको होगी।
सहजभाव से पक्का है विश्वास हमारा।।९२।।
वीतराग-सर्वज्ञेव की वाणी में जो।
आया है वस्तुस्वरूप वह परम सत्य है।।
उस पर भी विश्वास न हो तो फिर क्या बोलें?।
उन्हें मानने का तो फिर क्या अर्थ रह गया?।। ९३।।
केवल पूजा-पाठ किये कुछ काम न होगा।
अरे मानना होगा उनके मूल कथन को।॥।
भावी का भी सब नक्की - यह मूल कथन है।
इसमें मीन-मेख करने से काम न होगा।।९४।।
पर का कर्त्ता नहीं आत्मा - मूल कथन है।
कोई किसी का नहीं सभी हैं अपने-अपने।।
सभी द्रव्य है कर्त्ता-धर्ता अपने-अपने
कोई किसी का कुछ भी तो नकरे कभी भी।। ९५।।
अपना भविष्य भी जो केवलि ने जाना-देखा।
उसमें भी कुछ फेरफार की बात कल्पना।।
यह भी तो है मूल कथन इसकी उपेक्षा।
करना भी तो किसी तरह भी शक्य नहीं है।। ९६।।
जो जानें केवलि यद्यपि हम नहीं जानते।
पर हम यह तो माने कि केवली जानते।।
जो भी उनने जाना-देखा भाविकाल का।
वह सब है सम्पूर्ण सत्य इतना तो मानो।।९७।।
उसमें कुछ भी फेर बदल होगा न कभी भी।।
यह पक्का विश्वास हमें करना ही होगा।।
इसके बिन तो अरे बन्धुवर! मुक्तिमग में।
एक कदम भी चल पाना सम्भव न होगा।।९८।।
कर्त्तापन की बुद्धि इसके बिना न टूटे।
अर पर में अपनापन इसके बिना न छूटे।
कर्त्तापन अर अपनापन छूटे बिन भाई।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित हो नहीं सकेंगे।।९९।।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित बिन मुक्ति न होगी।
मुक्ति के बिन नहीं कहीं सुख-शान्ति मिलेगी।।
पाना है सुख-शान्ति ओर दुःखों से मुक्ति।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित पाने ही होंगे।।१००॥
है सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरणमय ही जीवन हो।
एकमात्र सदभाव यही मेरे मन में हो।।
और नहीं हो कोई कामना मेरे मन में।
सहजभाव ही सहज होय मेरे जीवन में।। १०१॥
सहजभाव ही सहज धर्म है समझो भाई !
सहजभाव ही सच्चा जीवन जीवन धन है।।
सहजभाव की सहज स्वीकृति मुक्तिमग है।
सहजानन्दी जीवन ही सच्ची मुक्ति है।। १०२।।
सहजभाव का सहज रास्ता सहज प्राप्तकर।
मैं अपने अन्तर में अति संतुष्ट हुआ हूँ।।
अपने में ही जमकर रमकर हे परमातम !
मैं अपने अन्तर में इकदम तृप्त हुआ हूँ।।१०३।।
सच्चे सुख का एकमात्र बस यही मार्ग है।
ओर अनन्ते सिद्ध हुये हैं इसी मार्ग से।।
दिव्यध्वनि में आया निश्चय मुक्तिमार्ग यह।
शेष कथन सब एकमात्र व्यवहार कथन है।। १०४।।