रे मन! कर सदा संतोष, जातैं मिटत सब दुख दोष || टेक ||
बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तृषना होति |
बहुत ईंधन जरत जैंसे, अगनि ऊंची जोति || १ ||
लोभ लालच मूढ़ जन सो, कहत कंचन दान |
फिरत आरत नहिं विचारत, धरम धन की हान || २ ||
नारकिन के पाँय सेवत, सकुचि मानत संक |
ज्ञान करि बुझै ‘बनारसी’ को नृपति को रंक || ३ ||
Artist - पं. श्री बनारसीदासजी