प्रेम अब त्यागहु पुद्गल का । Prem Ab Tyaghu Pudgal ka

प्रेम अब त्यागहु पुद्गल का

प्रेम अब त्यागहु पुद्गलका । अहित मूल यह जाना सुधीजन ॥ टेक ॥।
कृमि - कुल-कलित स्त्रवत नव द्वारन, यह पुतला मलका काकादिक भखते जु न होता, चाम तना खलका ।। १ ।।
काल- व्यालमुख थित इसका नहिं, है विश्वास पल का । क्षणिक मात्र में विघट जात है, जिमि बुद्बुद जल का ॥ २ ॥
‘भागचन्द’ क्या सार जानके, तू या सँग ललका ।
तातें चित अनुभव कर जो तू, इच्छुक शिवफलका ।। ३ ।।

रचयिता: कविवर श्री भागचंद जी जैन