प्रभु-दर्शन
प्रभु वीतराग मुद्रा तेरी, कह रही मुझे निधि मेरी है।
हे परमपिता त्रैलोक्यनाथ, मैं करूं भक्ति क्या तेरी है॥१॥
ना शब्दों में शक्ति इतनी, जो वरण सके तुम वैभव को।
बस मुद्रा देख हरष होता, आतम निधि जहाँ उकेरी है॥२॥
इससे दृढ़ निश्चय होता है, सुख ज्ञान नहीं है बाहर में।
सब छोड़ स्वयं में रम जाऊँ, अन्तर में सुख की ढ़ेरी है॥३॥
नहिं दाता हर्ता कोई है, सब वस्तु पूर्ण हैं निज में ही।
पूर्णत्व भाव की हो श्रद्धा, फिर नहीं मुक्ति में देरी है ॥४॥
Artist - ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’
singer: Atmarthi @Deshna