प्रभु तुम चरन शरन लीनौं, मोहि तारो करुणाधार ॥ टेक ॥
सात नरकतैं नव ग्रीवक लौं, रुल्यो अनन्ती बार ॥ प्रभु ॥ १ ॥
आठ करम वैरी बड़े तिन, दीनों दुःख अपार ॥ प्रभु ॥ २ ॥
‘द्यानतकी’ यह वीनती मेरो, जनम मरन निरवार ॥ प्रभु ॥ ३ ॥
अर्थ:
हे प्रभु! हे करुणा के आधार! मैंने आपके चरणों की शरण ली है, मुझे तारिए ।
सात नरक से लेकर नव ग्रैवियक स्वर्ग पर्यन्त मैं अनन्तबार इधर से उधर भटका हूँ अर्थात् एक छोर से दूसरे छोर तक अनन्तबार भटकता रहा हूँ, रुलता रहा हूँ / जन्मधारण करता रहा हूँ।
मेरे आठ कर्म मेरे सबसे बड़े शत्रु हैं। इन्होंने मुझे अपार दुःख दिए हैं। अर्थात् उन दुःखों का कोई पार नहीं है, छोर नहीं है द्यानतराय जी कहते हैं कि अब मेरी यह विनती सुनिए मुझे जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा दिलाइए।
भक्ति सोर्स: द्यानत विलास
अर्थ सोर्स: द्यानत भजन सौरभ
रचयिता: पंडित श्री द्यानतराय जी