प्रभु मैं ज्ञायक रूप केवल जाननहार रे।
सहज रूप ध्रुवधाम, शाश्वत् सुख भण्डारा रे ।। टेक ।।
मैं त्रिकाल नहीं पर का स्वामी, सदा भिन्न चेतन जग नामी ।
कर्त्ता-भोक्ता नहीं आज प्रत्यक्ष निहारा रे ।। 1।।
कार्य विकल्पों से नहीं होता, मूढ़ व्यर्थ हो बोझा ढोता ।
निर्विकल्प निज रूप लखा, अब सुखी अपारा रे ।। 2 ।।
अक्षय पूर्ण स्वयं मैं आतम, निर्विकार शाश्वत् परमातम ।
ऐसी श्रद्धा अनुभव थिरता, शिव पंथ विचारा रे ।। 3।।
प्रभुवर अब कुछ भी नहीं चाहूँ, निज स्वभाव में ही रम जाऊँ ।
जगे नाथ पुरुषार्थ अपूरव, शिव अविकारा रे ।। 4 ।।
रचयिता - आदरणीय बाल ब्रह्मचारी पंडित श्री रवीन्द्र जी आत्मन्
Source - स्वरूप स्मरण