प्रभु की वीतराग जिनमुद्रा | Prabhu ki veetrag jinmudra

प्रभु की वीतराग जिनमुद्रा, लख रोम-रोम हर्षाये…२
प्रभु की अंतर दृष्टि सुपावन, हमको ज्ञायक रूप दिखाये… २
तेरे दर्शन को हम आये, निज में निज की प्रभुता पाये…
चरणा… शरण मिल जाये… २॥टेक॥

अद्भुत प्रभु दर्शन की महिमा, चिर भावी मोह नशाय… २ ।
लगता जग का वैभव नश्वर, निज वैभव ही मुझे सुहाय… २
कब ये धन्य सुअवसर पाऊँ, जब मैं मुनि बन वन को जाऊँ…
यही भाव उर आये… २ ।।१।।

गुण अनन्त से शोभित प्रभुवर, निज चैतन्य बिहारी।
निज साधन से साध्य दशा, प्रगटी प्रभु की अविकारी ॥
अब न विषयों में ललचाऊँ, तुम सम शाश्वत् शिवसुख पाऊँ…
कृपा करो जिनराये… ।।२।।

भवतपहारी शिवपथदर्शी, प्रभुवर तेरे दिव्य वचन।
सदा कराते सत्यधर्म के, अमर तत्त्व का दिग्दर्शन ॥
जिनश्रुत की महिमा नित गाऊँ, प्रभु की भक्ति में रम जाऊँ…
प्रभ वचन सहाये… ।।३।।

रचनाकार: डॉ० विवेक जी जैन, छिंदवाड़ा

1 Like