प्रभु की हो रही जय जयकार, भासे ज्ञायक पद ही सार।
ज्ञायक आराधन से ही हो, सहज मुक्ति अविकार । टेक।।
पाप उदय में सब दुख माने, पुण्य भी हैं दु:खकार।।
अब न गमाऊँ एक समय भी,इस संसार मंझार ।।1।।
आत्म स्वभाव सहज आनन्दमय, महिमा अपरम्पार।
प्रगटा सहज अतीन्द्रिय आनन्द, लागे विभाव असार ।।2।।
प्रीति अप्रीति रहित शाश्वत, निज समयसार निर्धार।।
निशदिन सहज रहूँ केवल मैं, देखन जाननहार ।।3।।
ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता मैं भी नहीं, दीखे भेद लगार।।
करते निर्विकल्प अनूभूति, रहूँ सहज निर्भार ।।4।।
Artist - ब्र. श्री रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’