(तर्ज-चाह जगी है दर्शन की …)
प्रभु दर्शन कर चाह जगी, निज प्रभुता प्रगटावन की। टेक।।
प्रभु जैसा निज रूप दिखा, अन्तर में प्रत्यक्ष लखा।
रूचि जागी निज आतम की,निज प्रभुता प्रगटावन की।।1।।
प्रभु जैसी ही शक्ति अनन्त,शुद्धात्म में भी झलकन्त।
पामरता की बुद्धि भगी, निज प्रभुता प्रगटावन की।2।।
बाहर में कुछ दिखे न सार, भासे मिथ्या जग व्यवहार।
सत्य शरण परमातम की, निज प्रभुता प्रगटावन की।3।।
प्रभुवर जैसे जाननहार, वैसा मैं भी जाननहार।
कर्त्तापन की भ्रांति मिटी, निज प्रभुता प्रगटावन की ||4 ।।
स्वाश्रय से होऊँ निर्ग्रन्थ, स्वाश्रय से विच शिवपंथ।
चाह मिटी भव भोगन की, निज प्रभुता प्रगटावन की ।।5।।
निज में ही संतुष्ट रहूँ, स्वयं-स्वयं में तृप्त रहूँ।
टूटे सन्तति करमन की, निज प्रभुता प्रगटावन की ।।6।।
Artist - ब्र.श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’