काष्ठमध्ये यथा वह्नि:, शक्तिरूपेण तिष्ठति।
अयमात्मा शरीरेषु, यो जानाति स पण्डित:॥२४॥
रचयिता:- आचार्य श्री अकलंक देव
Meaning:
परमानन्दयुक्त विकाररहित, रोगों से मुक्त और (निश्चयनय से) अपने शरीर में ही विराजमान परमात्मा को ध्यानहीन पुरुष नहीं देखते हैं ॥१ ॥
अनन्त सुख से परिपूर्ण, ज्ञानरूपी अमृत से भरे हुए समुद्र के समान और अनन्त बल युक्त परमात्मा के स्वरूप का ही अवलोकन करना चाहिए ॥२ ॥
विकारों से रहित, बाधाओं से मुक्त, सम्पूर्ण परिग्रहों से शून्य और परमानन्द विशिष्ट शुद्ध(केवलज्ञानरूप) चैतन्य ही (परमात्मा का) लक्षण जानना चाहिये || ३ ||
अपनी आत्मा की (उद्धार की ) चिन्ता करना उत्तम चिन्ता है, शुभरागवश (दूसरे जीवों का भला करने की) चिन्ता करना मध्यम चिन्ता है, काम-भोग की चिन्ता करना अधम चिन्ता है और दूसरों का विचार करना अधम से भी अधम चिन्ता है ॥४ ॥
संकल्प-विकल्पों को नाश करने से समुत्पन्न जो ज्ञानरूपी सुधारस उसको तपस्वी महात्मा ज्ञानरूपी अञ्जुलि से पीते है ॥५ ॥
जो पुरुष सदा ही परमानन्दविशिष्ट आत्मा को जानता है, वही ( वास्तव में ) पण्डित है और वही पुरुष परमानन्द के कारणभूत अपनी आत्मा की सेवा करता है ॥ ६ ॥
जैसे कमलपत्र के ऊपर पानी की बूंद कमल से सदा ही भिन्न रहती है, उसी प्रकार यह निर्मल आत्मा शरीर के भीतर रहकर भी स्वभाव की अपेक्षा शरीर से सदा भिन्न ही रहता है। अथवा कार्माण शरीर के भीतर रहकर भी शरीरजन्य रागादि मलों से सदा अलिप्त रहता है ॥७ ॥
इस चैतन्य आत्मा का स्वरूप निश्चय से ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्मों से रहित, रागद्वेषादि भावकर्मों से शून्य और औदारिकादि शरीररूप नोकर्मों से पृथक जानो ॥८ ॥
जैसे जन्मांध पुरुष सूर्य को नहीं जानता है, वैसे ही शरीर के भीतर स्थित परमात्मा के आनन्दमय स्वरूप को ध्यानहीन पुरुष नहीं जान पाते हैं ॥९ ॥
जिस ध्यान के द्वारा यह चंचल मन स्थिर होकर परमानन्दस्वरूप में विलीन (मग्न) हो जाता है, वही ध्यान (मोक्ष के इच्छुक) भव्य जीव करते हैं तथा उसी समय चैतन्य चमत्कारमात्र शुद्ध परमात्मा का साक्षात् दर्शन होता है ॥१० ॥
उत्तम ध्यान करने वाले जो मुनि हैं, वे नियम से सभी दुःखों से छूट जाते हैं तथा शीघ्र ही परमात्मपद को प्राप्त करके ( और बाद में अयोग केवली होकर) क्षण मात्र में में ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं ॥ ११ ॥
निज स्वभाव में लीन हुए मुनि ही समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित परमानन्दमय परमात्मा के स्वरूप में निरन्तर तन्मय रहते हैं और इस प्रकार के योगी महात्मा ही परमात्मस्वरूप को स्वयं जानते हैं ॥१२ ॥
श्री सर्वज्ञदेव ने परमात्मा का स्वरूप चिदानन्दमय, शुद्ध, रूपरसादि आकार से रहित, अनेक प्रकार के रोगों से सर्वथा शून्य, अनन्त सुख विशिष्ट व सर्व परिग्रह रहित बताया है । निश्चयनय से आत्मा का आकार लोकाकाश के समान असंख्यातप्रदेशी तथा व्यवहार नय से प्राप्त छोटे व बड़े शरीर के समान बताया है ॥१३-१४ ॥
इसप्रकार ऊपर कहे हुए परमात्मा के शुद्ध स्वरूप को योगीपुरुष जिस समय निर्विकल्प समाधि के द्वारा जान लेता है, उसी समय उस योगी का चित्त आकुलता रहित स्थिर होता है और अज्ञान का नाश हो जाता है ॥१५ ॥
वह परमध्यानी योगी मुनि ही परमब्रह्म कर्मों को जीतने से जिन, शुद्धरूप हो जाने से परम आत्मतत्त्व, जगतमात्र के हित का उपदेशक हो जाने से परमगुरु, समस्त पदार्थों के प्रकाश करने वाले ज्ञान से युक्त हो परमध्यान व परम तपरूप परमात्मा के यथार्थ स्वरूपमय हो जाता है । वही परमध्यानी मुनि ही सर्व प्रकार के कल्याणों से युक्त, परमसुख का पात्र, शुद्ध चिद्रूप, परम शिव कहलाता है और वही परमानन्दमय, सर्वसुखदायक, परम चैतन्य आदि अनन्त गुणों का समुद्र हो जाता है ॥१६-१९ ॥
परम आह्लादयुक्त, रागद्वेषरहित अरहंतदेव को जो ज्ञानी पुरुष अपने देहरूपी मन्दिर में विराजमान देखता व जानता है, वस्तुतः वही पुरुष पण्डित है ॥२०॥
आकाररहित, शुद्ध, निजस्वरूप में विराजमान, विकाररहित, कर्ममल से शून्य और क्षायिक सम्यग्दर्शनादि अष्टगुणों से सहित सिद्ध परमेष्ठियों के स्वरूप का चिन्तवन करे ॥ २१ ॥
सिद्ध परमेष्ठी के समान परमज्योतिस्वरूप केवलज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिए जो पुरुष अपनी आत्मा को परमानन्दमय, चैतन्यचमत्कार - युक्त जानता है, वही वास्तव में पण्डित है ॥ २२ ॥
जिसप्रकार सुवर्ण- पाषाण में सोना, दूध में घी और तिलों में तेल रहता है उसी प्रकार शरीर में शिवस्वरूप आत्मा विराजमान है। जैसे काष्ठ के भीतर आग शक्तिरूप से रहती है उसी प्रकार शरीर के भीतर यह शुद्ध आत्मा विराजमान है । इस प्रकार जो समझता है, वही वास्तव मे पण्डित है ॥२३-२४ ॥