परम उपकारी जिनवाणी, सहज ज्ञायक बताया है।
हुआ निर्भार अन्तर में, परम आनन्द छाया है।
अहो परिपूर्ण ज्ञाता रूप, प्रभु अक्षय विभवमय हूँ।
सहज ही तृप्त निज में ही, न बाहर कुछ सुहाया है।।(1)
उलझकर दुर्विकल्पों में, बीज दुख के रहा बोता।।
ज्ञान-आनन्दमय अमृत, धर्म-माता पिलाया है ।।(2)
नहीं अब लोक की चिन्ता, नहीं कर्मों का भय किंचित् ।
ध्येय निष्काम ध्रुव ज्ञायक, अहो दृष्टि में आया है ।।(3)
मिटी भ्रान्ति मिली शान्ति, तत्त्व अनेकान्तमय जाना।
सार वीतरागता पाकर, शीश सविनय नवाया है ।।(4)
Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी आत्मन्
Singer- @Preetijain