यदि “संशय बेल हरी” को सही माना जाए, तो अर्थ होगा, कि मुनिराज ने संशय रूपी बेल का हरण अर्थात नाश कर दिया है। जैसे बेल पूरे वृक्ष का नाश कर देती है, वैसे ही संशय सम्यग्ज्ञान का नाश कर देता है। और मुनिराज ने उस संशय का नाश कर दिया है।
यदि कई जगह प्राप्त “संयम बेल हरी” पद को सही माना जाए, तो इसका अर्थ होगा, कि संयम रूपी अच्छी बेल से श्रद्धा रूपी भूमि सुहानी लग रही है। जैसे, बेल वृक्ष का सहारा पाकर ऊपर-ऊपर बढ़ती जाती है, ठीक वैसे ही मुनिराज का संयम भी श्रद्धा का सहारा ले कर वृद्धिंगत हो रहा है।
इस सम्पूर्ण भजन में वर्षा ऋतु का सांगरूपक अलंकार का प्रयोग है, वर्षा में बेलें नष्ट नहीं होती, अपितु हरी भरी होती हैं । किसी लिपिकार या मुद्रक ने भूल से संयम के बजाय संशय लिख दिया और बिना गम्भीर विचार किए उसी का अंधानुकरण चल रहा है। मैंने अनेक विद्वानों से चर्चा भी की, परन्तु कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली।
श्रद्धा की सुहावनी नरम भूमि पर संयम की बेलें हरी भरी हो गईं। यही अर्थ किया जाना कवि की भावना के अनुरूप है।