पाण्डेय राजमल्ल जी कवि | Pandey Raajmall ji kavi

[पाण्डेय राजमल्ल जी]

पाण्डे राज मल्ल जी

हम सब जैन हीरोज के नाम से श्रृंखला चला रहे हैं और उसमें मध्यकाल के हिन्दू जैन साहित्यकारों का योगदान समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में हमारा आज का विषय है पाण्डेय राज मल्ल जी।

राजमल्ल जी नाम के अनेक विद्वान हिन्दी साहित्य के इतिहास में हुए हैं। राजमल्ल नाम एक बहुत ही कॉमन नाम था और इस नाम के अनेक साहित्यकार मिलते हैं। जैन साहित्य में भी राजमल्ल नाम के अनेक साहित्यकार मिलते हैं लेकिन उनमें से दो राजमल्ल बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हैं। एक दो ब्रह्मचारी रायमल/रायमल्ल, जो पण्डित टोडरमल जी के दाहिने हाथ थे। जिन्होंने ज्ञानानंद श्रावकाचार लिखा है। एक तो वो रायमल्ल प्रसिद्ध बहुत हैं और दूसरे एक रायमल्ल ये पाण्डे राजमल्ल ये बहुत प्रसिद्ध हैं। हमारा आज का विषय पाण्डे राजमल्ल है। ब्रह्मचारी रायमल्ल नहीं। ब्र. रायमल्ल जी के बारे में कभी फिर से स्वतंत्र रूप से चर्चा करेंगे। आज तो हम ये पाण्डे राजमल्ल जी कौन थे? इन्होंने कौन-कौन से ग्रंथ लिखे हैं ? इनका क्या बहुत बड़ा योगदान है? इसको समझने की कोशिश कर रहे हैं। पाण्डे रायमल्ल जी के बारे में हमसे बहुत लोग लोगों ने ये पंक्ति बहुत सुनी होगी, जो समयसार नाटक में पण्डित बनारसीदास जी ने लिखी है। पण्डित बनारसीदास जी ने लिखा है -

पण्डित रायमल्ल जिनधर्मी, समयसार नाटक के मर्मी

तिन्हें ग्रंथ की टीका कीनी, बाल-बोध सुगम करदीनी।

यह विध बोध वचनिका फैली, समयसार अध्यातम शैली

प्रगटी जगमाहीं जिनवाणी, घर-घर नाटक कथा बखानी /सुनानी।।

समयसार को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान पाण्डे रायमल्ल जी का है उस काल में अत्यंत आश्चर्यजनक है। पाण्डे रायमल्ल जी को बनारसीदास जी ने समयसार का मर्मी कहा है। समयसार के मर्म को जानने वाले समयसार पर सबसे पहले हिन्दी टीका यदि कोई थी, तो वो येही थी, जिसको हम समयसार कलश टीका के नाम से जानते हैं। ये समयसार कलश टीका है और ये समयसार की यात्रा में एक बहुत बड़ा मील का पत्थर है। ये समयसार कलश टीका पाण्डे राजमल्ल जी ने ही लिखी है और पहले समयसार के नाम पर येही पढ़ी, पढ़ाई जाती थी। समयसार पढ़ो माने, ये पढ़ो। एक कलश टीका ही ऐसी थी। जो घर-घर में थी और बहुत ज्यादा प्रसिद्ध थी और इसकी महिमा अपरम्पार थी। इसने जो ख्याति अर्जित की वो सूर्य, चन्द्र के समान ख्याति अर्जित की। पण्डित बनारसीदास जी ने भी समयसार का जो कुछ ज्ञान प्राप्त किया वो उन्होंने समयसार की गाथाएँ नहीं पढ़ीं थीं, आत्मख्याति टीका भी नहीं पढ़ी थी केवल येही पढ़ी थी और इसी को पढ़कर उन्हें समयसार का मर्म मिल गया। इनको ही नहीं और भी बहुत लोगों को इस एक समयसार कलश टीका ने बहुत रास्ते पर लगाया है। येही घर-घर में प्रचलित थी, प्रचलन ही इसका था, बाकी तो प्राकृत में थी, संस्कृत में थी, तो वो जन, वो सबकी पहुँच में नहीं थी, लेकिन सबकी पहुँच तक कोई चीज थी तो वो ये समयसार कलश टीका थी और बनारसीदास जी ने जो समयसार नाटक लिखा है ना, वो समयसार नाटक कोई एक भी गाथा पढ़कर नहीं लिखा है, गाथा पर आधारित नहीं है। आत्मख्याति टीका पर आधारित नहीं है। उन्होंने कुछ नहीं देखा पढ़ा, वो तो उन्होंने इस कलश टीका के ही आधार पर समयसार नाटक बना। माने, में आपको ये कहना चाहता हूँ कि अब तक जो हम जैन साहित्यकारों की श्रृंखला पढ़ रहे हैं, उसका नींव का पत्थर, उसका मूल व्यक्तित्व बनारसीदास थे। बनारसीदास नहीं होते तो हमको भगवतीदास नहीं मिलते। पण्डित टोडरमल नहीं मिलते। जयचंद छाबड़ा नहीं मिलते। गाँव-गाँव में शैलियाँ नहीं चलतीं। धर्म आडंबर से अनावृत नहीं होता। मूल तत्त्वज्ञान प्रकाशित नहीं होता। वो जो सारा श्रेय जाता है मूल तत्त्वज्ञान को, असली जैनदर्शन को समझाने का वो बनारसीदास जी को जाता है और बनारसीदास जी भी हमको किसने दिए? तो वो श्रेय पाण्डेय राजमल्ल जी को जाता है। माने आज का आप विषय समझो कि आज का विषय जो हमारा है वो कितना महान विषय है। माने, इस टीका ने क्या क्रांति की इसने हमें बनारसी दिए और बनारसी ही नहीं हमें पूरी की पूरी बहुत लम्बी एक आध्यात्मिक चैन दी। जिसमें ये पन्द्रह बीस तो हमने नाम सूरज चाँद की तरह गिने हैं लेकिन हजारों लोग गाँव-गाँव में तैयार हुए थे, हजारों-लाखों। एक युग परिवर्तनकारी जिसे कहते हैं ना, युगपुरुष, युगान्तरकारी रचना ये समयसार कलश टीका है और इसके रचयिता पाण्डेय राजमल्ल जी हैं। आज हम उन्हीं पाण्डेय राजमल्ल जी के बारे में कुछ जानने की कोशिश करते हैं। मेरा इनको पढ़ते-पढ़ते मन ही नहीं भर रहा है। मैं खूब पढ़ रहा हूँ और मुझे इतना आनंद आ रहा है। मेरे रोम-रोम में इतनी बातें भरी हुई हैं कि, मैं देखो! आपको क्या-क्या सुनाता हूँ? देखो! कौन थे ये राजमल्ल जी? सचमुच बहुत महान, प्रणम्य। इनकी कैसे स्तुति करें? इनको हम कैसे समझें? बस यही दुःख होता है कि हमारी समाज को क्यों नहीं परिचय है? माने, कोई आदमी राजमल्ल जी पर मैं कहूँ कि राजमल्ल जी पर बोलो। राजमल्ल जी का परिचय बताओ। उनकी कृतियों के नाम बताओ। राजमल्ल जी कहाँ के रहने वाले थे? उन्होंने कौन-कौन से ग्रंथ लिखे? ये मैं चार प्रश्न पूछूँ तो आपको पूरे देश में बताने वाले दश बीस लोग भी नहीं मिलेंगे। ये एक बहुत बड़ी बिडम्बना है। बहुत बड़ा दुःख है और येही दूर होना चाहिए। समाज को इनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। इनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर लेख लिखना चाहिए। अपने बालकों को सुनाना चाहिए। अपनी पत्र-पत्रिकाओं में छापना चाहिए। इनका ज्ञान नहीं तो क्या है? चलिए, तो ये पाण्डेय राजमल्ल जी के बारे में मैंने आपको बताया कि ये पाण्डेय राजमल्ल जी वे थे जिन्होंने बनारसीदास जी को समयसार कलश टीका दी। पाण्डेय राजमल्ल जी का जन्म कब हुआ? ये ठीक-ठीक पता नहीं चल रहा है लेकिन जब बनारसीदास जी थे, तब पाण्डेय राजमल्ल जी जीवित थे। बनारसीदास जी के समय, बनारसीदास जी के जन्म को आज से चार सौ पैंतीस वर्ष हुए हैं और उस समय ये पाण्डेय राजमल्ल जी जीवित थे और न केवल जीवित थे, ये समयसार कलश टीका लिख चुके थे और इनके जीवनकाल में ही ये समयसार कलश टीका पूरे देश में अनेक जगह इसकी पाण्डुलिपियाँ पहुँच गईं थीं।

बहुत अधिक प्रसिद्ध हो गईं थीं। देखो! जैसा मैंने बनारसीदास जी के बारे में बताया कि वे हमारे देश के एक बहुत ही मूर्धन्य और प्रतिष्ठित कवि थे। ऐसे ही पाण्डेय राजमल्ल जी उँगलियों पर गिनने योग्य एक पूरे देश के बहुत ही प्रतिष्ठित कवि थे। प्रतिष्ठित विद्वान थे। तत्कालीन राजा और तत्कालीन बड़े-बड़े सेठ इनका बहुत आदर करते थे। पाण्डेय राजमल्ल जी मूल रूप में बैराठ के रहने वाले थे। विटारनगर एक जगह है। आज भी यह जयपुर से करीब चालीस मील दूर है। अलवर जिले में आता है और वहाँ बहुत सुन्दर पार्श्वनाथ भगवान का विशाल मंदिर है। आज भी है। बहुत बढ़िया मानस्तम्भ है। बहुत बढ़िया तीर्थक्षेत्र है। बैराठ उसको बोलते हैं और वैसे वो विराटनगर है। विराट नगर मत्स्य देश की वो राजधानी था। जब पाण्डेय राजमल्ल जी थे उस समय वो राजधानी थी मत्स्य देश की और उसी मत्स्य देश की राजधानी में रे पाण्डेय राजमल्ल जी हुए। मैंने इनकी जानकारी करने के लिए, एक व्यक्ति ने विराटनगर पर पीएचडी की है। मैंने उससे भी चर्चा की। मैं कई लोगों से सामग्री लेकर, बम्बई में जिनेश जी ने मुझे इनकी सारी किताबें उपलब्ध कराईं दुर्लभ-दुर्लभ। मैंने वो किताबें देखीं। ऐसे करके जो-जो बातें मुझे पता चलीं वो मैं आपको सुना रहा हूँ लेकिन पाण्डेय राजमल्ल जी पर अभी तक कोई पीएचडी नहीं हुई है, कोई ज़रा भी कोई शोधकार्य नहीं हुआ है छोटा-मोटा भी तो कोई करना चाहे तो अवश्य करना चाहिए बहुत अच्छा और बहुत ही बढ़िया विषय है। ये जो पाण्डेय राजमल्ल जी थे। ये बहुत प्रतिष्ठित होने के कारण सब जगह बड़े आदर के साथ बुलाए जाते थे। जगह-जगह के राजा, महाराज, सेठ, कोई भी बड़ा कार्यक्रम हो तो इनको बुलाया जाता था। आगरा में उस समय अकबर का शासन चलता था। उस समय अकबर राजा था आगरा में, अकबर की मृत्यु बनारसीदास जी के समय में हुई थी हमने बनारसीदास जी के प्रकरण में चर्चा की थी। तो अकबर ने भी इनको आगरा में बुलाया था और ये आगरा में भी गए। आगरा में भी ये रहे। ये बहुत पाँच सात जगह काफी काफी समय रहे। मथुरा में भी ये बहुत दिन रहे। नागौर राजस्थान का एक बहुत बड़ा जिला है अच्छा, नागौर में भी ये बहुत दिन रहे। इस तरह ये कई स्थानों पर रहे और इन्होंने क्या-क्या ग्रंथ लिखे? मैं आपको पहले इनके ग्रंथों का कुछ नाम बताता हूँ। ताकि हमको इनका स्वभाव, इनका ज्ञान और इनका योगदान सब चीजें समझ में आएं। इन्होंने एक तो यह ग्रंथ लिखा है जो मैंने अभी आपको दिखाया, समयसार कलश टीका। इसके अलावा भी इन्होंने और अनेक ग्रंथ लिखे हैं। जिनमें से एक ग्रंथ यह है जम्बूस्वामी चरितम्। ये संस्कृत भाषा का महाकाव्य है। आप सोचिए थोड़ा संस्कृत भाषा में महाकाव्य लिखा। ये गृहस्थ पण्डित उस काल के कितने उच्च कोटि के विद्वान होते थे। संस्कृत भाषा का ये महाकाव्य और आप पढ़ो तो पढ़कर के दंग रह जाओ इतना सुन्दर महाकाव्य है अंतिम केवली जम्बूस्वामी की पूरी कहानी है। प्रथमानुयोग का ग्रंथ है लेकिन इतना तत्त्वज्ञान और इतनी सुन्दर कथा और इतनी बढ़िया काव्यकला क्या भाषा, क्या शैली, क्या उसके साहित्यिक महत्त्व, वो सब इस ग्रंथ का देखने लायक है। जम्बूस्वामी चरितम् और जम्बूस्वामी चरित में हमारे जैनधर्म का गौरवशाली इतिहास भी छुपा हुआ है। इसमें जो-जो बातें लिखी हुईं हैं वो अगर आप पढ़ लो तो आपको बहुत ज्ञान प्राप्त हो। ये मथुरा में रहकर के लिखा है जहाँ जम्बूस्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जम्बूस्वामी के जीवन की घटना जहाँ घटी वहाँ ये बैठकर के लिखा गया और वहाँ की गहरी स्टडी करके पाण्डेय राजमल्ल जी ने लिखा और इसमें ये लिखा है कि उस समय मथुरा में जब यह ग्रंथ लिखा गया है तब यहाँ पर पाँच सौ चौदह स्तूप थे। आज आपको देखने को दो तीन रह गए हैं वहाँ सारे के सारे स्तूप या तो नष्ट कर दिए गए हैं या बौद्ध स्तूप घोषित कर दिए गए हैं। स्तूप का मतलब नशियां जी (वो स्थान जहाँ से कोई जीव समाधिमरण करता है, स्वर्ग, मोक्ष जाता है वो चरण चिह्नों पर स्मारक बनाया जाता है उसको स्तूप कहते थे और वो स्तूप जम्बूस्वामी के साथ एक विद्युतच्चर नाम का चोर था और उसके साथ पाँच सौ चोर थे और उन्होंने भी दीक्षा ली थी और वो पाँच सौ एक चोरों का भी स्तूप बना था और जम्बूस्वामी के भी स्तूप हैं तो पाँच सौ चौदह स्तूप वहाँ पर थे और आज क्या स्थिति हो गई कि वहाँ पर दो स्तूप भी जैनों के नहीं रह गए सारे स्तूप नष्ट हो गए। ये सब वर्णन इस किताब में लिखा हुआ है और ये भी लिखा है कि एक साहू टोडर थे। मथुरा में उस जमाने में एक टोडर नाम के टोडर, टोडरमल जो भी होगा उन सेठ जी ने उन स्तम्भों में जो कुछ टूट-फूट हुई थी उसकी मरम्मत करवाई थी। उसका सारे का जीर्णोद्धार भी करवाया था वो भी वर्णन इसमें है। माने मैं ये कहना चाहता हूँ कि जम्बूस्वामी चरित्र केवल कहानी की ही दृष्टि से नहीं, अध्यात्म की दृष्टि से, तत्त्वज्ञान की दृष्टि से, भाषा शैली से, काव्यत्व की शैली से और इतिहास की दृष्टि से, पुरातत्व की दृष्टि से हमारा एक बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तावेज है। मैं सबको कहना चाहता हूँ कि अपनी-अपनी छाती पर हाथ रखकर सोचो कि इसके बारे में कितने लोग जानते हैं? लोग जैनधर्म का पतन हो रहा है ये शिकायत तो करते हैं बहुत लेकिन अपने अंदर नहीं देखते कि हमको इन चीजों का पता है, हम इनको संभाल कर रख रहे हैं। इनको ये किताब चाहिए तो मिलती नहीं है। मैं हमारी यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी से इस्सू करा कर लाया हूँ। अध्यात्म कमल मार्तण्ड ये भी संस्कृत में है। माने संस्कृत में काव्यरचना करने में कितने कुशल थे। देखो! मैंने जो कुछ पढ़ा-समझा है मैंने ये जो पढ़ा है वो मूल में पढ़ रहा हूँ मैं इनको और मैंने ये पढ़ा है दरबारीलाल जी कोठिया ने अध्यात्म कमल मार्तण्ड का बहुत सुन्दर संपादन किया है। अरे! एक बार देखो तो सही, एक बार विहंगावलोकन तो करो, घण्टे दो घण्टे लगाकर के तो देखो, कहाँ सो रहे हो भाई! वो देखने लायक ग्रंथ है और उसकी प्रस्तावना पढ़ने लायक है और उस अध्यात्म कमल मार्तण्ड में एक सौ पाँच श्लोक हैं और तीन अध्याय हैं। पहले अध्याय में निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय का वर्णन है। दूसरे अध्याय में जीवादि सात तत्त्वों का वर्णन है और तीसरे अध्याय में षटद्रव्यों का वर्णन है। ऐसे करके ये एक इतना सुन्दर प्रयोजनभूत संस्कृत में, पहले बहुत लोग उस जमाने में संस्कृत को समझने वाले होते थे। देखो! एक और बात मैं आपको क्या बताना चाहता हूँ सुनो जब तुलसीदास जी ने हिंदी में रामचरितमानस लिखी तो लोगों ने उनको गालियाँ दीं, धिक्कारा। उससमय हिन्दी में लिखना ये बड़े लोग जो धर्म के ठेकेदार थे वो अच्छा नहीं मानते थे और पाण्डेय राजमल्ल जी ने सोचा कि असली तत्त्वज्ञान को अगर परोसना है तो संस्कृत में देना होगा और एक बात कि हिन्दी की रचना लिखने वाले को अच्छा नहीं मानते थे कहते थे कि इसे कुछ आता नहीं है। उसे विद्वान ही नहीं माना जाता था जो हिन्दी में साहित्य लिखे। इसलिए उन्होंने संस्कृत में साहित्य लिखा और उस समय के जमाने में बड़े-बड़े भट्टारकों के पास जाते थे और उनको भभी ग्रंथ भेंट करते थे। बताते थे। समझाते थे। राजा-महाराजा के पास जाते थे। बताते थे। समझाते थे और सबको सुनाते थे और ये आप पढ़ोगे ना, पाँच श्लोक कोई भी पढ़ लो तो आपको लगेगा कि जैसे आप अमृतचन्द्राचार्य को पढ़ रहे हो। इन अमृतचन्द्राचार्य जी को तो पाण्डेय राजमल्ल जी घोटकर पी गए थे और इसलिए वो जो भी लिखते थे ऐसा लगता था मानो पुरुषार्थसिद्धयुपाय आ रहा है। मानो लघुतत्त्व स्फोट आ रहा है। मानो समयसार के कलश ही उतर कर आ रहे हैं। इनकी हर कृतियों में मंगलाचरण है तो, वैसा ही नमः समयसार… इनकी हर कृति के अन्त में जो पद मिलता है वो वैसा ही है… वर्णैकृतानि चित्तैपदैपदानि तु कृतानि वाक्यानि, वाक्यै कृतं पदित्रम् शास्त्रमिदं न पुरनस्माभिः। इस तरह की ये भाषा इनकी आती है।

रचनाओं के नाम :-

१. समयसार कलश टीका।

२. जम्बूस्वामी चरितम्।

३. अध्यात्म कमल मार्तण्ड।

४. लाटी संहिता भी (संस्कृत) में है और श्रावकाचार का ग्रंथ है मानो पुरुषार्थसिद्धयुपाय, रत्नकरण्ड श्रावकाचार ऐसा का ऐसा यह ग्रंथ है और वैसे ही इसमें सात अधिकार हैं। पहला अधिकार सम्यग्दर्शन का, फिर अष्टमूलगुण, सप्तव्यसन, फिर निश्चय-सम्यग्दर्शन फिर एक अधिकार पूरा का पूरा अहिंसा पर है। इतना बढ़िया अधिकार है वो तो पूरा का पूरा पढ़ने लायक है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय के बाद मैं अब तक समझता था कि सबसे ज्यादा वर्णन अहिंसा का पुरुषार्थसिद्धयुपाय में है लेकिन ये पढ़ो तो वो सारा वहाँ से लेकर उतना ही विस्तार से, उतने ही भंगों में लाटी संहिता में पूरा एक अधिकार अहिंसा के वर्णन का इति विविध भंग कहने तो वो विविध भंग हैं अहिंसा के फिर एक अधिकार में बाकी के चार अणुव्रत हैं देखो! पाँच अणुव्रतों में से एक अणुव्रत को एक अधिकार दिया और चारों को फिर ये कहकर कि ये तो उस अहिंसा के ही विस्तार हैं। एक अधिकार में चारों लिख दिए फिर एक अधिकार में गुणव्रत, शिक्षाव्रत और फिर एक अधिकार में सामायिक आदि सल्लेखना और प्रतिमा। ऐसे करके ये लाटी संहिता मगर ये लाटी संहिता नाम क्या हुआ? मुझे बड़ा अचम्भा हुआ कि ये नाम क्या रखा कोई श्रावकाचार कुछ रखते, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, वसुनन्दी श्रावकाचार, उपासकाध्ययन कुछ ये लाटी संहिता नाम क्या है ये बहुत मार्मिक बात है। संहिता का मतलब होता है संविधान, नियमावली। संहिता माने श्रावक की नियमावली और लाटी माने क्या होता है? अरे! इसके लिए बड़ा पाण्डित्य चाहिए। भाषाशास्त्र में, साहित्यशास्त्र में चार तरह की रीतियाँ मानीं गईं हैं। वैदर्भी, गौणी, पाञ्चाली और लाटी। चार तरह की शैलियाँ होतीं हैं और ये जो लाटी संहिता लिखी गई है वो उस लाटी रीति में लिखी गई है। लाटी रीति का मतलब है जिसमें केवल आप को केवल कोमल, सरल पदों का, सरस पदों का इस्तेमाल, गुजरात से प्रभावित शैली है। मीठी भाषा चाहिए इसमें संधि समास नहीं चलते कठिन तो वैसा बहुत सुंदर जिनमें बहुत प्रसिद्ध है। बहुत जगह से छपा है और वो लाटी संहिता पढ़ने लायक बड़ा सुंदर ग्रंथ है तो लाटी संहिता भी एक बड़ा ग्रंथ है। लाटी संहिता की रचना में अन्त में समय लिखा हुआ है कि ये रचना मैं विक्रमसंवत् 1641 को लिख रहा हूँ। जम्बूस्वामी चरितम् में भी अंत में समय लिखा हुआ है। चैत्र कृष्णा अष्टमी को 1632 में जम्बूस्वामी चरित लिखा। अकबर के अनुरोध पर लिखा। वो एक गजब की बात है माने ये इतने कवि के रूप में संस्कृतकवि के रूप में यदि कोई बहुत अच्छा स्थापित नहीं हुआ होता है तो कोई किसी से निवेदन करने वाला नहीं है कि आप एक कविता लिखकर हमें दे दो। इसका मतलब है कि उन्होंने पहले भी कुछ कविताएँ लिखीं होंगी। हमें राजमल्ल जी की कुछ और कृतियाँ होंगी जो हमको मिल नहीं रहीं हैं।ध्यान रखते नहीं। पाण्डुलिपियाँ खोजते नहीं। हमको ये सब काम करते कण्टाला आता है। हमें तो माल पकाकर खिला दो। हमें तुम्हारी सेवा ना करनी पड़े लोगों की मनोवृत्ति में कहीं एक स्वार्थ होता है और ये तत्त्वज्ञान में कहीं ना कहीं थोड़ी-सी बाधा बनता है। वक्ता से भी सुन लेना अलग बात है और उसकी सेवा का भी भाव आना वो एक अलग बात है। वो किसी किसी को आता है। जिसको आता है वो विशेष पात्र होता है। ऐसे ही सुन लेना कि हमें क्या लेना-देना उनका क्या हो रहा है, हमें परवाह नहीं करना उनकी। ऐसी जगत की वृत्ति है। समयसार कलश, जम्बूस्वामी चरितम्, अध्यात्म कमल मार्तण्ड, लाटी संहिता और एक गजब की रचना, वो है पंचाध्यायी। पंचाध्यायी पाण्डेय राजमल्ल जी की अजर-अमर रचना है और पंचाध्यायी माने जिसमें पाँच अध्याय होने थे लेकिन डेढ़ अध्याय हुए और पाण्डेय राजमल्ल जी का स्वर्गवास हो गया। ये पाण्डेय राजमल्ल जी के जीवन की अंतिम रचना है। पाण्डे राजमल्ल जी इसमें पूरा जैनदर्शन भर देना चाहते थे। माने पता नहीं ये होता क्या है पण्डित टोडरमल जी पूरा मोक्षमार्गप्रकाशक लिखना चाहते थे और वो अधूरा रह गया। जिनसेनाचार्य पूरा जैनदर्शन महापुराण में भरना चाहते थे और अधूरा छोड़कर चले गए और पंचाध्यायी में पाण्डेय राजमल्ल जी पूरा तत्त्वज्ञान भर देना चाहते थे। पाँच अध्याय होने थे और एक अध्याय में आठ सौ श्लोक हैं। अभी भी वर्तमान में ग्यारह सौ पचहत्तर(1175) श्लोक मौजूद हैं हमारे पास में और वो डेढ़ भी नहीं हैं। माने पाँच हजार श्लोकों का ये एक ग्रंथ लिखा जाना था और पढ़ो ना तो छूटता ही नहीं वो फ्लो है, वो प्रवाह है भाषा में पढ़ते ही जाओ, पढ़ते ही जाओ। इतना सुंदर, इतना सरस है कि बस कुछ पूछो ही नहीं क्या बताया जाए…

तत्त्वंसंलकक्षणिकम् यस्मात्स्वतःत्वतःसिद्धम् ।

तस्मादनादिनिदमम् स्वसहायं निर्विकल्पं च।।

इस एक श्लोक पर मैंने छह पेज का एक लेख लिखा है। इस एक श्लोक की व्याख्या लिखी है। ये पंचाध्यायी का आठ नम्बर का श्लोक है और मैंने इसकी आठ पेज में व्याख्या लिखी है तो कितना माल भरा हुआ है और कितना अच्छा और ऐसे-ऐसे पाँच हजार श्लोक मिलने वाले थे। पंचाध्यायी जैसा महान ग्रंथ और देखो ये पंचाध्यायी के बारे में कोई भ्रमित नहीं होना, मैं आपको बहुत रिसर्च करके बता रहा हूँ। पंचाध्यायी के बारे में थोड़े दिन पहले तक इसके लेखक कौन हैं? इस बारे में विवाद था, ज्ञात नहीं था। एक जगह से छपी कारंजा से पण्डित देवकीनन्दन जी ने छपाई थी तो उन्होंने लिख दिया कि इसके लेखक कौई अज्ञात हैं। ऐसा लिखा है उसमें फिर पण्डित मक्खनलाल जी ने इसकी टीका ली। पण्डित मक्खनलाल जी ने टीका लिखी और टीका लिखी तो उस पर छपाया कि आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचित पंचाध्यायी। पंचाध्यायी अमृतचन्द्राचार्य से कितनी मिलती होगी कि पण्डित मक्खनलाल जी को यह भ्रम हो गया कि ये अमृतचन्द्राचार्य की लिखी हुई है और उन्होंने क्योंकि वो ही भाव, वो ही भाषा चली आ रही है धाराप्रवाह तो उन्होंने पंचाध्यायी को अमृतचन्द्राचार्य की लिख दी लेकिन बड़े-बड़े विद्वान, वीर सेवा मंदिर में इसका बहुत बड़ा एक प्रोजेक्ट चला है, कई साल तक इस पर रिसर्च हुई है और रिसर्च के वे बहुत सारे लेख मेरे पास में हैं और उनसे यह बात सिद्ध हुई है कि ये पंचाध्यायी भी अमृतचन्द्राचार्य की रचना नहीं है बल्कि पाण्डेय राजमल्ल जी की है और देखो जम्बूस्वामी ये जो चरित है इसमें अध्यायों के बीच में पुष्पिका आती है जैसे पुष्पिका आती है ना… इति तत्त्वार्थाधिगमे प्रथमोऽध्याय:। ऐसे बीच में एक पुष्पिका सुनो इति स्याद्वाद अनुबध्य गद्य पद्य विद्या विशारद विद्यामणी/विद्वतमणी पण्डित कवि राजमल्ले नवरचितम्। मैं सोचता हूँ कि उस जमाने में शिक्षा ज्यादा थी कि आज ज्यादा है। पहले बड़े पण्डित होते थे कि अभी बड़े पण्डित होते हैं। हमलोग बड़े पण्डित हैं कि वो बड़े पण्डित थे। ये घर गृहस्थी में विषम परिस्थितियों में उस जमाने में बताओ क्या करें भैय्या। पंचाध्यायी में क्या नयों का वर्णन है आपको पूरे जिनागम में कहीं नहीं मिलेगा जो नयों का वर्णन है। व्यवहार नय के भेद-प्रभेद, निश्चय नय के भेद-प्रभेद कौन नय-नय हैं, नयाभाष की नई-नई मौलिक अवधारणाएँ। पंचाध्यायी विक्रमसंवत् 1650 में लिखना शुरू की थी उसमें शुरुआत में संवत् डला हुआ है फिर कब, कितने अगर पाण्डेय राजमल्ल जी का टाइम अगर कुछ होगा तो उनके निधन का टाइम विक्रमसंवत् 1655 के आसपास होना चाहिए और 1655 के आसपास उनका निधन होगा तो 1600 से पहले यानि की आज से ज्यादा से ज्यादा पाँच सौ वर्ष हो उनको हो गए, ज्यादा से ज्यादा लगाओ तो पौने पाँच, चार सौ सत्तर वर्ष पहले उनका जन्म करीब ठहरता है तो ऐसे थोड़ा-थोड़ा जितना मिले उतना तो सम्हाल कर रखो भाई। एक और नई रचना जो अभी तक पछी नहीं, रचना का नाम है छन्दोविद्या, पिंगलशास्त्र ये नागौर में राजा भारमल्ल भूपाल थे उनके अनुरोध पर लिखी है। जैनाचार्यों ने छंद पर बहुत काम किया है। एक बार बहुत छंद पर नेशनल सेमिनार था और मैंने उसमें जैनाचार्यों के छंदशास्त्र को योगदान इस विषय पर मैंने भाषण दिया था तो कम से कम सौ किताबें जैनाचार्यों ने छंद पर लिखीं हैं। छंद कैसे लिखे जाते हैं ये कैसे पढ़े जाते हैं। हमारे मंदिरों में कविता करना सिखाया जाता था। छंद निर्माण करने की कला सिखाई जाती थी। छंदभंग नहीं होना चाहिए। नाच्छंदसि वागुच्चरति… जो छंद को छंदहीन बोलता है उसको वचन संबंधी कर्म का बंध होता है। हमारे मंदिरों में केवल एक ग्रंथ नहीं पढ़ाया जाता था, केवल अध्यात्म नहीं पढ़ाया जाता था। व्याकरण, संधि, समास, छंद ये बेसिक जरूरी शिक्षा सारी दी जाती थी। ये जो छंदोविद्या है। इसमें एक हजार जैनकवियों का परिचय है हिन्दी जैनकवियों का परिचय। इस किताब के बारे में क्या लिखा है? इसकी प्रति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन पंचायती मंदिर मस्जिद खजूर दिल्ली में आजतक सुरक्षित है। इसके कुछ छंद प्राकृत के भीं हैं। गाथा कैसे बनाना? गाथा कैसे बोलना? संस्कृत के भीं हैं कैसे मालिनी, वसंततिलका उपजाति, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा कौन छंद कैसे पढ़ा जाता है? कैसे लिखा जाता है? क्या गण व्यवस्था है? क्या यति व्यवस्था है? बताओ ये सब पढ़ाया जाता था ना। तब ना ये विद्वान तैयार हुए। आज कोई इतना व्यापक पढ़ रहा है? मंदिर में हम जरा-सी बात करने लगते हैं ना तो लोग हमको टोकतें हैं। आप तो कुछ अध्यात्म का नहीं सुना रहे। आप तो कुछ अप्रयोजनभूत सुना रहे हो। पता नहीं क्या हमको हो गया? छंदशास्त्र सिखाया ये इतने भजन दौलतराम जी ऐसे ही लिख गए उनको आता नहीं था ये सब तो देखो छंद सुनो… इसमें तीन अध्याय हैं। एक अध्याय में प्राकृत की छंद कला। दूसरे में संस्कृत की छंद कला और तीसरे में हिन्दी की छंद कला। उस जमाने में हिन्दी के छंद, हिन्दी शुरू भी नहीं हुई थी एक तरह से हिन्दी का गद्य पहली किताब है हिन्दी की समयसार कलश टीका। कोई कहता है कि इन्होंने शुरू किया कोई कहता है उन्होंने शुरू किया। हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है दौलतराम जी हिन्दी गद्य के जनक हैं लेकिन दौलतराम जी से सौ साल पहले, डेढ़ सौ साल पहले समयसार कलश टीका हिन्दी में ये लिखी गई। हिन्दी साहित्य का पहला प्रथम गद्यकार है पाण्डेय राजमल्ल मैं दावे से कह रहा हूँ कोई मेरे से बात कर लेना, बहस कर लेना। हिन्दी गद्य का प्रथम लेखक पाण्डेय राजमल्ल। प्राकृत में छंद मतलब अकेली गाथा लिखना नहीं सिखाया। बीसों तरह के छंद लिखना।

गयंद राज गज्जियं समाज गाज सज्जियं

दिसनिसाण वज्जियं चमूह समूह धाइयं।

कमोणमाण धारियं कपाण पाण नारियं

द्रवणहूं कार्यं रजोगमण क्षाइयं।।

क्या-क्या कह गए। हिन्दी का एक छंद सुना देता हूँ।

जिनके गृह हेम महावन है तिनको वसुधा हय हेम दिए

जिनको तन जेव तरावन है तिनके घर तैं दरवार लिए।

सुरनन्दन भारह मल्लवली कलि विक्रम ज्यों सकबंध विए

जस काज गरीबनि वनिवाज सवै, फिर मालनि बाजनि निहाल किए।।

एक और रचना उन्होंने लिखी है वो है तत्त्वार्थसूत्र की टीका। संस्कृत टीका। छह रचनाएँ संस्कृत की और एक रचना हिन्दी की है। हिन्दी की रचना क्यों लिखी उन्होंने?.क्योंकि समयसार घर-घर पहुँचाना था। ये बड़े लोग माने या ना माने। लिख दिया ना बनारसीदास जी ने कि … प्रगटी जगमाहीं जिनवाणी, घर-घर नाटक कथा सुनानी। घर-घर में समयसार को पहुँचाने के लिए ये रचना किसी राजा, किसी सेठ के लिए, पण्डितों में स्थापित होने के लिए नहीं लिखी। माने और रचनाएँ तो वे बहुत बड़े पण्डित थे ना तो पण्डित गोष्ठियों में दिखाने को तो वोही चलती थी। वो पण्डित उसी के बिना मानते नहीं थे लेकिन ये रचना अर्थात् समयसार पण्डितों में मैं प्रतिष्ठित हो जाऊँ इसलिए नहीं लिखी बल्कि समयसार सबको पढ़ना जरूरी है इसलिए उन्होंने ये लिखी और उनके जीते जी इसकी हजारों पाण्डुलिपियाँ बनकर देश में फैली। इसी को बनारसीदास जी ने पढ़ा और इसी के आधार पर समयसार नाटक लिखा और इसी से क्या तत्त्व, और इसी को पढ़कर ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी इसी से पलटे थे। ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने 1957 में इसकी हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर खुद उन्होंने संपादन किया था और वो भी है ना सूरत से मूलचंद किशनदास कापड़िया जैन मित्र मण्डल सूरत वहाँ से छपा था। ये सब बातें कहने का मतलब ये है कि ये सब बातें इतिहास की हैं, जानने लायक बातें हैं। अमृतचन्द्राचार्य जी को तो पाण्डेय राजमल्ल जी घोटकर पी गए। ये जो नाम है ना पाण्डेय…

तीन-चार पाण्डेय राजमल्ल जी, पाण्डेय रूपचंद जी बनारसीदास जी के समय कभी एक हुए, पाण्डेय हेमराज जी बनारस गए थे पढ़ने ये पाण्डेय नाम बहुत खास है पण्डित रह जाना अलग बात है। बनारसीदास पण्डित हैं लेकिन पाण्डेय उसको कहते थे जो पण्डितों के बीच उच्चकोटि का पण्डित, पण्डित के रूप में स्थापित भी हो धाराप्रवाह संस्कृत में शास्त्रार्थ कर सकता हो ऐसा शास्त्रार्थ का धुरन्धर पण्डित हो तो ऐसे ये हमारे हीरो हैं कलम के सिपाही। हीरो मतलब कलम के सिपाही। जब-जब हीरो की बात चलती है तो हमको वो दुनियां के हीरो ही दिखाई देते हैं। ये साहित्य के, शस्त्र धारकों को बहुत बार हीरो समझा। अब शास्त्र धारकों को हीरो समझो भाई। ये हैं हमारे आत्मा के असली रक्षक। ये हैं असली हीरो। मुंशी प्रेमचंद्र पर एक किताब है कलम के सिपाही तो कलम के सिपाही हैं ये। ऐसी बहुत महत्त्वपूर्ण बातें हैं। आज की बात यहीं पूरी करता हूँ।
||इत्यलम् ||

जैन हीरोज सीरीज

आदरणीय वीरसागरजी भाईसाहब के प्रवचन से संकलित

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समयसार कलश टीका की पुस्तक available है क्या PandeyRaajmall जी द्वारा krit?

आप यहां से डाउनलोड कर सकते हैं।

धन्यवाद

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