पंचकल्याणक ‘एक दिव्य अनुष्ठान’
लेखक - आ० बाबू युगल जी, कोटा
आर्हत-दर्शन के सत्य का उद्घाटन करनेवाले मोक्षमार्ग के प्रणेता युग-प्रवर्तक, तीर्थंकर-महापुरुष होते हैं और उनकी यह तीर्थ-संस्कृति जैन-शासन का आधार स्तम्भ होती है। इस ज्ञान एवं विज्ञानमय संस्कृति को जीवंत बनाये रखने के लिए तीर्थंकरों का उदय होता है, जिनकी दिव्यवाणी द्वारा धर्म-तीर्थ की पवित्र धारा इस धरती पर बहती रहती है और उस वाणी का स्पर्शकर अज्ञान से त्रस्त दुःखी प्राणी अपने शुद्धात्म-तत्त्व की अनुभूति द्वारा भव का क्षय कर लेते हैं।
आर्यखण्ड के भरत, ऐरावत व विदेह क्षेत्रों के मध्य, विशिष्ट पुण्यशाली, रत्नत्रय मंडित पुरुष ही तीर्थंकर-बालक के रूप में अवतरित होते हैं और ये पंचकल्याक भी उनके संपूर्ण जीवन-दर्शन का एक सजीव मूर्तिमानरूप है। जीवन की चरम-पतन-दशा से लेकर, उच्चतम अवस्था जिसे हम ‘निर्वाण’ कहते हैं, इसका विधि-विधान जहाँ सम्पन्न होता है, उसे ‘पंचकल्याणक’ कहते हैं। सचमुच यह हमारे जीवन की परिभाषा है।
हमारी संस्कृति के ये मांगलिक महोत्सव कल्पित-नाटक, मेला या मनोरंजन के साधन किंचित् भी नहीं हैं। बल्कि हमारे भावों की ऊँचाई, जिसे ज्ञान व वैराग्य कहा जाता है, उस तक पहुँचने का एक सुन्दर माध्यम है। यह तो हमें अपने तुच्छ वैभव में मोह से मूच्छित मानव के हृदय में आशा व उत्साह का संचार करते हैं तथा उसे राग की दरिद्री-वृत्ति से उठाकर, वीतरागता के सर्वोच्च धरातल पर बिठा देता है-ऐसा इसका वास्तविक शुद्ध-स्वरूप है। सचमुच “पंचकल्याणक एक प्रकाशस्तंभ के समान होते हैं, जिनकी रोशनी तीर्थंकरों के अन्तस्तल में लिखे शिलालेखों को पढ़ने में मददगार होती है।”
इस तथ्य पर हम गंभीरता से विचार करें कि यदि इसे किसी नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और दर्शक भी इसे उसी मनोभावों के साथ देखेंगे, तो वहाँ कृत्रिमता का ही प्रदर्शन मात्र होगा, सत्यता पूरी लुप्त हो जायेगी और यह हमारे भावों की उर्ध्वता जिसे हम सम्यग्दर्शन, ज्ञान, वैराग्य कहते हैं, उसका निमित्त कैसे बन सकेगा तथा वह सफल-पंचकल्याणक नहीं कहलायेगा। हम पूरे ही शून्य रह जायेंगे, इसे नाटक कहना इसके वीतरागी भाव-पक्ष का उपहास-मात्र है। एक ओर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नाटक को देखने में दर्शक को पुण्य का बंध भी नहीं होता; क्योंकि श्रृंगार, वीर, वीभत्स, शांत, करुण आदि रस व स्थायी संचारी आदि भाव कहे हैं, नाट्य के पक्षों द्वारा इन रसों व भावों की प्रस्तुति जब होती है, तो उनमें दर्शक का साधारणीकरण नहीं होता, वह इसे नाटक के वेश में ही देखता है तो उन देख रहे दृश्यों के साथ हमारी ज्ञान-परिणति बिल्कुल रीती की रीती रह जाती है। पंचकल्याणक तो एक मणि-दीप के समान है, जिसकी रोशनी में हम उन लोकोत्तर-पुरुषों के आंतरिक व बाह्य-जीवन के इतिहास को पढ़ते हैं, इसमें राग के पोषण के लिए तनिक भी अवकाश नहीं है, इसलिए ये पंचकल्याणक भी चतुर्थकाल में हुए साक्षात् तीर्थंकर-परमात्मा का ही साक्षात् मूर्त- प्रतिबिंब है और यह महोत्सव भी उस अनादि-परम्परा की ही एक कड़ी है।
अरे ! इस लोक में तीर्थंकर-प्रकृति कोई सामान्य प्रकृति नहीं है इसका बंध किसी महापुण्यशाली अलौकिक-पुरुष को ही होता है। इसके साथ कुछ आवश्यक नियम ऐसे होते हैं कि केवली-श्रुतकेवली के चरणों के निकट ही इसका बंध होता है और पूर्व भव में सातिशय विशुद्ध परिणामों से सम्यग्दर्शन सहित पुरुष दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण-भावनाओं का चिंतवन करते हैं। इसके फलस्वरूप उस पुरुष को तीर्थंकर-प्रकृति का बंध होता है। आगम में ऐसा कथन आया है कि चारों गतियों में सिर्फ मनुष्य गति में पुरुष पर्याय में ही यह बंध होता है, स्त्री को नहीं तथा चतुर्थ-गुणस्थान से देशविरत, प्रमत्तसंयत व आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक इसका बंध कहा है।
वह जीव एक-दो-तीन भव बाद तीर्थंकर के रूप में भरत-ऐरावत व विदेह क्षेत्रों में जन्म होते हैं। उनके ये पाँच कल्याणक होते हैं। उसी की प्रतिकृति इन कल्याणकों को हम इस पंचमकाल में मनाते आ रहे हैं, जिसका प्रत्येक-दृश्य रोमांचक एवं वैराग्य के स्फुरणवाला होता है।
ये पाँच-प्रसंग तीर्थंकर भगवन्तों के जीवन काल में ही आते हैं, अन्य सामान्य मनुष्यों को ऐसे संयोग देखने को नहीं मिलते; क्योंकि तीर्थंकर होनेवाले जीव की अर्न्त-बर्हि पवित्रता, सातिशय-ज्ञानोपयोग कोई विशिष्ट-जाति का होता है। यह प्रतिष्ठा उनके जीवन को अनेक चरण के साथ पूर्णता के लक्ष तक ले जाती है और वे अपने प्रचंड-पुरुषार्थ द्वारा साध्य की सिद्धि कर लेते हैं।
प्रतिष्ठा-विधि का प्रारंभ ही ‘अनेकान्त’ व ‘अहिंसा’ की मुद्रा से अंकित शासन-ध्वज से होता है, जो हमारे दिगंबर-शासन का गौरव है। जैसे देश में समस्त राष्ट्रों के अपने-अपने ध्वज चिह्न होते हैं और उस विशेष ध्वज से राष्ट्र की पहचान होती है, वैसे ही जैनशासन का शान हमारा पंचरंगी यह ध्वज पाँच प्रकार के वीतरागी मुक्तिगामी-श्रमणों के स्मृति चिह्न के रूप में स्वीकृत है, ध्वज की यह व्यवस्था सनातन दिगंबर जैनधर्म के सार्वकालिक-विधान को उद्घाटित करती है।
इसके अंतर्गत हमारा लोकोत्तर शासन नियंत्रित अनुशासित एवं सुरक्षित रहता हुआ विकसित होता है, जो कभी किसी मिथ्यावादियों से झुकनेवाला नहीं है। शिवपथ का परिचायक यह अनादि ध्वज है, जो हमें परिणति की उर्ध्वता का संदेश देता है, इस विश्व शांति के पावन ध्वज को हम असीम श्रद्धापूर्वक शत-शत नमन करते हैं। गगनचुम्बी इस ध्वज की शीतल छाया में गर्भ जन्म-तप-ज्ञान व निर्वाण के मनोरम व प्रेरक दृश्य संचालित किये जाते हैं, जो जनमानस के हृदय को झंकृतकर उनके भीतर दृढ़ आस्था व विश्वास जगाते हैं।
ऐसे अनुष्ठानों में जितने भी विशुद्ध कार्य के साथ हमारे शुभ भावों का संबंध होता है, उसमें सर्वप्रथम तत्त्वज्ञान के द्वारा यह निर्णय होना चाहिए कि इसमें ‘हेय’ क्या है और ‘उपादेय’ क्या है। इस किंचित्-शुभ में हमारा ममत्व न फैल जाय, हम इसे उपादेय मान इसमें अहं न कर बैठे, क्षणिक-भाव के इस अहं में हमारा संसार क्षय होने के स्थान पर बढ़ न जाये। यह ज्ञान में समझ लिया जाने पर उस शुभ में पड़ा हमारा अहं वहाँ से खिसककर अपनी चैतन्य सत्ता पर आ जाता है।
पंचकल्याणक मुझे बड़ा अच्छा-रस उत्पन्न करता है, यह तो इन्द्रियज्ञान महा-मिथ्यादर्शन है। अर्हन्त-भगवान के प्रति तीव्र-भक्ति का भाव मंद-कषाय की ही पर्याय होने से उस शुद्ध-ज्ञान के क्षेत्र से बाहर है। यह राग ‘ज्ञान’ के घेरे में नहीं आता, इसकी व जाति भिन्न है, जड़ है। ज्ञान का जब उदय होता है, तो वह अपने प्रकाश में दोनों को दो भिन्न-भिन्न जानता हुआ ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का अनुभव कर लेता है। सारा शुभाचार बाहर ही था, बाहर ही लोटता है।
त्रैलोक्य-अधिपति तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान आदि कल्याणक आत्मसाधना द्वारा उस रत्नत्रत्रय की ही प्रेरणा देते हैं, बालक का माता के गर्भ में आना, सोलह-स्वप्नादि, देव-देवियों का आगमन सेवा व रक्षा (पन्द्रह) 15 मास तक रत्नवृष्टि आदि सब ठाठ हमें इस जड़-वैभव व भोगों की ओर नहीं खींचते, किन्तु यह बताते हैं कि इस पुण्य से प्राप्त इन नश्वर-संयोगों के बीच में भी वे जल में कमलवत् अलिप्त रहते हैं।
जन्म तो उनका राजघराने में होता ही है। जन्म के समय स्वर्ग में इन्द्रों का आसन् कम्पायमान होना, तीन लोक में, अरे नरकों में भी एक समय के लिए शांति हो जाना, नभ में करोड़ों बाजे बजना, स्वर्गलोक का इन्द्र परिवार-सहित उस नगरी में उतर आना, योजनों ऊँचा ऐरावत हाथी लाना। यह हाथी देव ही विक्रिया द्वारा बनते हैं और बालक-तीर्थंकर का पाण्डुक-शिला पर 1008 (एक हजार आठ) कलशों से अभिषेक, सौधर्म इन्द्र द्वारा ताण्डव-नृत्य। यह सब जन्म के दृश्य देखते हैं, तो आश्चर्य होता है, पैदाइश उस छोटे से बालक के चरणों में सौधर्म जैसे असंख्य इन्द्र देवादि चरण-चंचरीक बन अपनी रत्नमयी सारी विभूति बिखेर देते हैं। यह जन्म-कल्याणक भी उस बाल-तीर्थंकर के बाह्य-पुण्य को नहीं बल्कि उनके अंतरंग में चल रही चैतन्य तत्त्व की उग्र-साधना को ही बताते हैं। वे इस जन्म का सदा के लिए नाश करने आये हैं और ये पौद्गलिक चाकचिक्य इन्द्रधनुष जैसे, हमें भोगों की असारता, अस्थिरता का ही संदेश दे रहे हैं।
अरे ! राजमहल में जन्म लेना यह कोई बड़ी बात नहीं, यह सब तो पुण्य का फल है। क्योंकि-
महलों में रहकर भी मानव गिर जाता है।
और सुमन काँटों में पलकर खिल जाता है।।
यह सब सच है, किन्तु बड़ी यह बात नहीं है।
रे! विभूति तो सदा पुण्य की दास रही है।।
तीर्थंकर जैसे बालक तो भौतिक ऐश्वर्य की चकाचौंध से भी अत्यन्त निर्लिप्त अपने चैतन्य देव की उपासना में लीन रह, प्रतिक्षण उसी को निरखा करते हैं। जड़-वैभव की सुरम्य छटायें उन्हें किंचित् भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकती। अंत में आत्मा की प्रचुर अनुभूति की दशा में उनके भीतर वैराग्य के प्रसून अंकुरित होने लगते हैं और वे इस राजसिक-सौन्दर्य को तिलांजलि देकर सम्यक्चारित्र के रथ पर आरूढ़ हो, जैनेश्वरी-दीक्षा धारण कर, वन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।
अरे! मनुष्य-पर्याय के इस उत्कृष्ट चारित्र व संयम के लिए देवता भी तरसते रह जाते हैं। अपनी पर्याय की निरर्थकता जान वे अपना सारा-वैभव इस मनुष्य-भव के एकसमय को न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं। इस निर्ग्रन्थ-दशा के आगे तो इन्द्रों का सारा वैभव भी परास्त हो जाता है, क्योंकि वे संयम के अधिकारी नहीं हैं, जो मुनिराज के साथ दीक्षित हो सके, वही उनकी पालकी को उठाने का अधिकारी होता है।
क्या होती है मुनिदशा ? हम कल्पना नहीं कर सकते, प्रचुर स्वसंवेदी आनंद में केलियाँ करनेवाले अरे! ऐसे तपोधनी, वनविहारी, साधु इस जगत् में कहीं नहीं हैं, जिन्हें आहार का तुच्छ-सा विकल्प होता है, मिल गया तो ठीक, नहीं तो छोड़कर चुपचाप चले जाते हैं, बड़े कठिन-नियमों से बंधी हुई, उनकी आहारचर्या होती है, फिर भी अत्यन्त अनासक्त परिणति। वे तो अपने आत्मस्वरूप की ठंडक में से निकलना ही नहीं चाहते, उन्हें ऐसा लगता है, कौन चले महाव्रत की धूप में।
मुनि भगवन्तों के मुनि दशा में तीर्थंकर जैसे जीव तो मौन धारण करते हैं, तीन ज्ञान के साथ मनः पर्ययज्ञान भी प्रगट हो जाता है। निरन्तर चैतन्य के चिंतन व ध्यान में ही पूर्ण तल्लीनता वर्तती है। ऐसी आत्म-विचरण की आनंदमयी ज्ञान-दशा में श्रेणी के प्रचण्ड-पुरुषार्थ द्वारा वीतरागता व कैवल्य को प्राप्त कर लेते हैं। अरहंत-दशा में विराजित हो जाते हैं, केवलज्ञान के उस स्वच्छ दर्पण में संपूर्ण-लोक का वैभव उमड़ उमड़कर आता है, फिर भी उससे अत्यन्त विरक्त रहते हैं। समवसरण की रचना सौधर्म इन्द्र करते हैं, लेकिन उन्हें उसमें कोई मतलब नहीं। उनकी ओंकारमयी देशना का सर्वत्र प्रसारण होता है, लेकिन उसका एकमात्र केन्द्रबिन्दु शुद्धात्मतत्त्व ही होता है, जिसे सुनकर भव्य-जीव अपने मोह का निवारणकर मुक्तिमार्ग प्रशस्त करते हैं और अपने भव का अंत कर लेते हैं।
ऐसे पंचकल्याणक के प्रसंग में हमें बारंबार मैं तो शुद्ध ज्ञान-ज्योति हूँ ऐसे परमज्ञान स्वभाव की महिमा जगानी चाहिए, और इस पारिणामिक भाव-स्वरूप अपना चैतन्य निधान की श्रद्धा एवं अनुभूति का दृढ़ संकल्प कर लेना चाहिए।
निर्वाण का समय निकट आने पर दिव्यध्वनि रुक जाती है और वह केवली-परमात्मा योग-निरोध के लिए जहाँ से मोक्ष होना होता है, उस स्थान पर स्वतः गमन कर जाते हैं। अपने निश्चित स्थान पर स्थित हो अयोग में प्रवेशकर शेष अघातिकर्मों का क्षयकर पूर्ण-मुक्त हो जाते हैं और समयमात्र में लोक शिखर के अग्रभाग (सिद्धालय) में अनंतकाल के लिए वे सिद्ध भगवान विराजमान हो जाते हैं तथा अव्याबाध-सुख का निरन्तर भोगकर उसी में सदा के लिए डूब जाते हैं, ऐसे सिद्ध भगवन्तों को हम अनंत-वंदन समर्पित करते हैं और पंचकल्याणक के मांगलिक बेला में हम उन तीर्थंकर परमात्मा को आदर्श बनाते हुए, शुद्ध चैतन्य की दृष्टि पूर्वक मुक्तिमार्ग प्रशस्त कर उन्हीं के पथानुगामी बनें, यही उत्तम भावना भाते हैं।
उछलता मेरा पौरुष आज त्वरित टूटेंगे बंधन नाथ। अरे! तेरी सुख-शय्या बीच, होगा मेरा प्रथम-प्रभात ।।
पंचकल्याणक के आदर्श-निर्देश—
पंचकल्याणक आदि धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर इनकी पवित्रता व गरिमा बनाये रखना हमारी जैन-संस्कृति का मौलिक दायित्व है। आज हम देख रहे हैं, इन आयोजनों में उत्तरोत्तर विकृतियों ने जन्म ले लिया है, विवेक अस्त हो गया है। वैराग्य के इन प्रसंगों में आद्योपांत राग-रंग का ही समावेश दिखाई देता है, जिनमें पंचकल्याणक का आत्मा तो गायब रहता है।
- रात्रि कार्यक्रम निषेध जैनधर्म का धरातल अहिंसा है और हम ‘अहिंसक धर्म’ के शिरोमणि कहलाते हैं। कदम-कदम पर इस भगवती अहिंसा की रक्षा करते हुए इसके समस्त कार्यक्रम अहिंसक रीति से दिन में सम्पन्न होना चाहिए। रात्रि के समय तेज लाइटें जलती हैं, वह भट्टी जैसी गर्म हो जाती है, जिससे टकरा टकरा कर लाखों मच्छर बड़े-बड़े कीट मर जाते हैं, भयंकर बदबू फैलती है, जैसे हवन कुण्ड में हवन हो रहा हो, मिट्टी के ढेर की तरह उनकी लाशों का ढेर हो जाता है। अरे! ऐसे निर्दयी पापियों को कहाँ धर्म गले उतरेगा, उन्हें ‘मुमुक्षु’ कौन कहेगा। मुमुक्षु अर्थात् मोक्ष का अभिलाषी यह जैन।
हम रात्रि 11-11 बजे तक कार्यक्रमों को खींचते हैं, यह तो पंचकल्याणक के नाम पर हिंसा का ही प्रदर्शन है। इनमें हमने वैराग्य को पूरी तरह धूमिल कर दिया और राग-भरे आडम्बरों को मुख्य कर दिया, सारा जन-समुदाय क्या लेकर जायेगा, नृत्य और नाटक। हाँ यदि पंचकल्याणक के कार्यक्रम दिन में सम्पन्न कर एक तात्त्विक प्रवचन कराकर 8 बजे तक समाप्त कर दें तो साधर्मी श्रोता उस पर चर्चा चिंतवन-मंथन कर पायेंगे।
- भूमि चयन पंचकल्याणक जैसे अवसर में तो भूमि का चयन भी अत्यधिक प्रासुक होना चहिए। एकेन्द्रियादि, वनस्पतिकायिक, जीवों से रहित हो। यदि प्रासुक स्थान नहीं मिला तो हम यह आयोजन नहीं करें। मैंने व आपने सभी ने देखा था जयपुर पंचकल्याणक में ‘तपकल्याणक’ के दिन हरी घास पर फर्श बिछाया गया और उस पर बिठाया गया। “अरे! हमारा विवेक कहाँ चला गया। अनंत जीवों का घात कर हम कौन-सा तपकल्याणक मना रहे हैं। जहाँ मूल में दया नहीं है और ‘दयानाथ’ कहलाने के शौकीन बने हैं। सोचे और विचार करें-अहिंसा का संहार मत हो। ऐसे में तनिक भी स्थान अनुकूल नहीं हो, तो पंचकल्याणक नहीं करें।”
अपनी परिणति को टटोलना चाहिए। ऐसी बहुत-सी आदतें हैं, जिनके कारण सम्यग्दर्शन रुका पड़ा है। इतना ऊँचा-तत्त्व सुने और सामान्य आदतों को भी न छोड़ सके। मनुष्य उसको अपनी आदत सुनना पसन्द नहीं है और इन आदतों को अपना स्वभाव मानता है। क्रोध, मान, माया, लोभ वहाँ पल-पल पलते हैं। आदत को बतानेवाले दोष को दिखानेवाले डॉ. गुरु हमें मुफ्त मिले हैं, जो चुन-चुनकर हमारे काँटे निकालते हैं।
‘गुरुदेव’ जैसे गुरु हमें मिले, जो अन्दर से भी पवित्र और बाहर से भी पवित्र थे। उनके कान में जब कोई बात चली जाती थी, तो उसे तत्काल छोड़ देते थे। कर्फ्यू जैसा ऑर्डर होता था। सोनगढ़ में मानस्तम्भ के यहाँ पर हरियाली लगी थी गुरुदेव ने देखा कि इसमें अनन्त जीवों का घात होता है, तो उन्होंने तत्काल वहाँ से हटाने का आदेश दिया। घास का एक तिनका भी पैर रखने लायक नहीं होता, क्योंकि उसमें असंख्य जीव होते हैं। हमारे भाई ऐसा कुतर्क करते हैं कि “यह तो मुनियों की बात है।” लेकिन क्या हम उस पर पैर नहीं रखेंगे। कोई हमें रोकनेवाला है क्या ?
मुनियों की प्रवृत्ति ऐसी बन गई कि उन्हें सोचना भी नहीं पड़ता और हम मुनि बनना चाहते हैं, तो हम क्या ऐसे घास पर पैर रखते-रखते ‘मुनि’ बन जायेंगे, हमें भी मुनि बनना है, तो ऐसी अहिंसाचार वाली आदत बनानी पड़ेगी। यह कोई देखना नहीं पड़ता, लेकिन जैसे प्रतिसमय हमें श्वास आता है, और निकल जाता है। ऐसा प्रत्येक जैन, मुमुक्षु का आचार-विचार होता है, वैसी प्रवृत्ति बने तब हम गुरुदेव के हैं- यह दम-भरकर बोल सकते हैं।
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माता-पिता चयन-भगवान के माता-पिता का पद बहुत ही ऊँचा पवित्र और गरिमामय है ये इतने महान्-पद हैं, जिन्हें जनसाधारण सामान्यरूप से ग्रहण नहीं कर सकता। भगवान के माता-पिता बनने जैसा विश्व में कोई कार्य नहीं है भगवान के माता-पिता बनाने के पहले प्रतिष्ठाचार्यों को पूछना चाहिए कि उनकी योग्यता है या नहीं?" कई लोग ब्रह्मचर्य धारण कर लेते हैं प्रतिष्ठाचार्यों को इस बात का पता ही नहीं होता वे ब्रह्मचर्य के बाद भगवान के माता-पिता बन जाते हैं। बताइये भगवान् का गर्भ-जन्म कैसे होगा अरे भाई! ब्रह्मचर्य का पद तो भगवान् के माता-पिता से भी ऊँचा पद होता है। वह तो आपने पहले ही ले रखा है लोग वृद्धावस्था तक भी भगवान के माता-पिता बन रहे हैं और फिर ‘ब्रह्मचर्य’ ले रहे हैं। अरे! वह तो स्वतः ही ‘ब्रह्मचर्य’ का काल है। क्या अभी भी वासना नहीं टूटी ? जब तक इन विकृतियों को मिटायेंगे नहीं, तब तक हमारे समारोह पवित्र व आदर्श कैसे बन सकते हैं।
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इन्द्र-इन्द्राणी का चयन-50-100 साल पहले भी पंचकल्याणक होते थे। उस समय इन्द्र-इन्द्राणी का पद योग्यता व पवित्रता के आधार पर होता था; क्योंकि ये कोई सामान्य-पद नहीं है, एक भवावतारी पद है। प्रतिष्ठाचार्यों को देखना चाहिए कि इन पदों को धारण करनेवाले व्यक्ति में कोई गलत आदत व्यसनादि, रात्रि भोजन आदि तो नहीं है।
वह जैन श्रावक के योग्य सामान्य सदाचार, न्याय, नीतिज्ञ आदि गुणों से युक्त हो। ऐसे पद की योग्यता के बिना पद-धारण करने पर पद लज्जित होता है। अरे! इन्द्रों से मनुष्यों का पद काफी ऊँचा है। यहाँ से तो सीधा मोक्ष होता है, फिर कौन बड़ा हुआ ? बताइये।
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सात्त्विक-दान आगम में चारप्रकार के दान की चर्चा आती है। औषधि, शास्त्र, अभय, आहार। यहाँ धन के दान की तो चर्चा ही नहीं है। पहले पंच कल्याणक बड़े ही सात्त्विक ढंग से होता था। उसमें जो दान होता था, वह भी सात्त्विक ही होता था। हमारे में बुराई है और फिर भी इन्द्र इन्द्राणी जैसे पद को धारण करते हैं, तो यह गलत है; क्योंकि धन के बल पर भी हम उस पद को प्राप्त कर उसे सुशोभित नहीं कर पाते। सच्चाई तो यह है कि मेरे पास पढ़ा हुआ धन मेरे सहयोग से आया हुआ धन मेरा नहीं है-ऐसा जाननेवाला ज्ञानी पुरुष ‘पात्र’ है। पैसे से जो बोलियाँ चालू की जाती हैं, उसमें देखनेवालों को यही लगता है कि यह तो पैसे का नृत्य है। हम सात्त्विक दान जैसी अपने हृदय की भूमिका बनायें और हम शक्ति को छुपाये बिना शक्ति से भी अधिक दान देकर आध्यात्मिक समारोह को सार्थक बनायें। पंच कल्याणक में पैसे की आवश्यकता तो होती है। हमारे भीतर इतना बड़ा कलेजा होना चाहिए कि हम पैसा दान में दें और समाज में जो इस पद को धारण करने योग्य है, उनसे विनती कर कहें कि “पैसा तो मैं देता हूँ, लेकिन आप इस पद की शोभा बढ़ायें, तो मैं भी पंचकल्याणक के आदर्श को स्वीकार कर सकूँगा।” यही होगी हमारे दान की वास्तविक उपयोगिता और सात्त्विक-दान का प्रारंभ।
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धन का सदुपयोग-पंचकल्याणक एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें धन की अधिक से अधिक आवश्यकता होती है। उस जगह कम से कम पैसा खर्च करते हुए हम इसे कर सकें, तो हर व्यक्ति को अवसर प्राप्त हो सकता है। जहाँ पंचकल्याणक करें और उसी जगह सैंकड़ों प्रतिमा प्रतिष्ठित होकर जगह-जगह पहुँच जायें। ऐसे में पैसे के लिए लालायित भी नहीं होंगे ? बोलियाँ भी नहीं लगानी पड़ेगी, और पैसे का सदुपयोग भी हो जायेगा। जहाँ प्रतिमा प्रतिष्ठित होकर गईं, वहाँ वेदी-प्रतिष्ठा करायें। इस तरह बचे हुए धन का सदुपयोग समाज कल्याण के लिए करें; क्योंकि आज समाज में ऐसे कितने ही लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन भी नहीं मिल पाता, उन्हें हम सहयोग करें। अरे हम तो उस धर्म के अनुयायी हैं, “जिसका मूल ही दया है, हम तो अपनी कषाय में इतने अंधे हैं कि एक प्रतिमा स्थापित हो गई और मोक्ष का अधिकार मिल गया ऐसा समझते हैं, लेकिन यह बिल्कुल झूठ है।” इसलिए एक पंचकल्याणक हो और कई प्रतिमा प्रतिष्ठित होकर स्थापित हों जायें-यही उचित है।
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सांस्कृतिक कार्यक्रम-हम सांस्कृतिक कार्यक्रम के बल पर पंच-कल्याणक सम्पन्न करना चाहे, लेकिन यह खीर में मूसल जैसा अनर्थ है, पंचकल्याणक स्वयं ही हमारी परिणति को आनंद से सरोबार कर देता है, यह तो साक्षात् मोक्षमार्ग है। इससे उत्कृष्ट और पवित्र अनुष्ठान दूसरा नहीं है। प्रवचन के पवित्र कार्यक्रम के बाद होने वाला सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रवचन के रस को मिट्टी कर देता है और राग-रंग लोगों के मन में बस जाता है, बाकी सब सपाट हो जाता है, सुने हुए तत्त्व पर पुताई हो जाती है। वास्तव में पंच कल्याणक स्वयं सांस्कृतिक हैं, इसके चप्पे-चप्पे में जैन-संस्कृति बोलती है। सांस्कृतिक कार्यक्रम करना अर्थात् हमें तत्त्वज्ञान नहीं चाहिए और हमने प्रवचन के गम्भीर विषय पर पानी फेर दिया। ऐसा मनोविज्ञान बन जाता है कि आगे क्या होने वाला है? इसतरह हम श्रोताओं को मनोरंजन-प्रिय बनाने का बहुत बड़ा अपराध करते हैं। समाज शुद्ध-तत्त्वज्ञान सुनना चाहता है, अतः हम राग का रस मिलाकर उसे आकर्षित न करें शुद्ध-तत्त्व का रस पिलाकर युवाओं को आकर्षित करें, समाज को आकर्षित करें, मनोरंजनप्रिय श्रोता कभी तात्त्विक नहीं होते। यह विद्वानों और प्रतिष्ठाचार्यों की बड़ी जवाबदारी है।
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शील ब्रह्मचर्य की मर्यादा मंचों पर पंचकल्याणक एक ऐसा नियोग है, जिसमें राजा-रानी, इन्द्र-इन्द्राणी मंच पर आकर बोलते हैं। लेकिन जिनमें शील और ब्रह्मचर्य का विवेक नहीं रखते, ऐसे नृत्य नहीं करायें। यदि एक ऐसा अनुष्ठान है, जिसमें अनेक ब्रह्मचारी भाई-बहिन भी आते हैं। यदि ब्रह्मतत्त्व की रक्षा करना है, तो हमें यह कदम उठाना ही होंगे। शील और ब्रह्मचर्य का जैनदर्शन में बहुत बड़ा स्थान है पुरुष मंच पर जा सकते हैं, स्त्रियाँ क्यों नहीं ये बात छोटे-हृदयवाले लोग करते हैं। पति-पत्नी के कोई अधिकार नहीं, वहाँ तो मात्र कर्तव्य होता है। ‘वहाँ तो एक दिन बैंक तुम जाओगे, एक दिन मैं’- ऐसा नहीं चलता। नौकरी छूट जायेगी। पुरुष की मर्यादा और कर्त्तव्य का पालन पुरुष करे, स्त्री की मर्यादा और कर्त्तव्य का पालन स्त्री करे, तो उचित है इसमें दीनता-हीनता व निराश होने की जरूरत नहीं है, लेकिन चरणानुयोग का रक्षा करें। सम्यक्त्व के अधिकारी तो सभी हैं यदि हम पूज्य गुरुदेव के शिष्य कहलाते हैं तो उनकी इन मर्यादाओं का पूरी तरह पालन कर इसकी रक्षा करें।
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प्रवचन का समय और मर्यादा-पंचकल्याणक में प्रवचन का ही महत्त्व व मुख्यता होनी चाहिए क्योंकि समाज अपना कीमती समय निकालकर वहाँ उपस्थित होते हैं। नये लोग भी इसमें आते हैं, उन्हें अध्यात्म की सरस चर्चा मिलना चाहिए। ऐसे में जिन विद्वानों की शैली, भाषा और तत्त्वज्ञान सही है, उन्हें मौका दें। प्रथम तो एक प्रवचन ही काफी होता है लेकिन विद्वानों को इस तरह का शौक क्यों होता है कि वे मंच पर आकर बोलें ही। एक विद्वान् एक विषय पर बोलता है, तुरन्त दूसरा विद्वान् श्रोताओं को दूसरी जगह ले जाता है। ऐसे में श्रोता विषय से भ्रमित होते हैं। जो विद्वान् समय के अनुसार श्रोताओं को वैराग्य-रस से सराबोर कर दें, उन्हीं विद्वान के प्रवचन रखें और कार्यक्रम को संक्षिप्तकर शीघ्र ही समाप्त करने का प्रयास करें, जिससे व्यक्ति को चिंतन करने का समय मिले, जो देखा और सुना उससे वह अपने जीवन को अन्वेषण कर सकें।
पंचकल्याणक में होने वाली विकृतियाँ यदि हमने आज नहीं रोकीं, तो हो सकता है ये भविष्य में विकराल रूप धारण कर इस पवित्र जैनधर्म को नष्ट न कर दें। हम यहाँ यह कह सकते हैं कि "गुरुदेव के समय में भी सोनगढ़ में पंचकल्याणक हुए, लेकिन गुरुदेव नहीं बोले। फिर भी मेरा अन्तःकरण बोलता है कि मुझे बोलना चाहिए गुरुदेव दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं जन्में थे, अतः यहाँ के विधि-विधानों का इससे संबंधित कुछ भी परिज्ञान नहीं था, फिर भी विशिष्ट विद्वानों से पूछकर ही सारे महोत्सव होते थे, इसलिए गुरुदेव नहीं बोले।
यहाँ अकेले मुझे ही बोलना नहीं है, बल्कि एक-एक व्यक्ति जो विकृति देखता है, सभी को बोलना चाहिए। आश्चर्य तो इस बात का होता है कि समाज मौन होकर विकृतियों को देखता रहता है ये नहीं बोल पाता कि इस रीति को दूरकर इसमें सुधार करे हम परिवर्तन करें, यह व्यवहार-धर्म का अंग है इसे सुचारु रूप से निर्वाह करें यह निश्चयधर्म नहीं है, अतः विकृति को दूर करें। कौन-सा कार्यक्रम किस जगह कराना है, उसे देखें। सभी धार्मिक-अनुष्ठान पूर्व-परम्पराओं से बंधकर सम्पन्न कराएं और पवित्र दिगम्बर-धर्म के उच्च-आदर्श की स्थापना करें।
- मैं आपको एक बात और कहता हूँ कि पंचकल्याणक के साथ जो गजरथ महोत्सव जोड़ा जाता है, वो पंचकल्याण का अंग नहीं है, वो केवल प्रतिष्ठा टूटने का अंग है। दूसरा उसमें हाथियों की व्यवस्था होती है तो हाथी तो वैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय और बुद्धिमान जीव है, तो उसमें बैठना और जाना ये भी कोई अच्छी बात नहीं लगती है, इसलिए हाथियों का आयोजन नहीं करता और दूसरा कोई उस हाथी का आश्वासन हमको नहीं देता। हाथी एक ऐसा जानवर होता है कि जो बुद्धिमान तो होता है, लेकिन वो बहुत बलिष्ठ और क्रोधी होता है। इसलिए अगर वो थोड़ा भी मचल जाए तो जान चली जाती है और सारा पंचकल्याणक महोत्सव कलंकित हो जाता है, इसलिए इसमें गजरथ महोत्सव की तनिक भी आवश्यकता नहीं है।
दिगम्बर समाज में विकृतियों का परिहार करें —
आज महोत्सवों के रंग तो अनेक बदले हैं क्योंकि हम कार्यक्रम प्रधान हो गये और जो अधिक कार्यक्रम हैं उसमें व्यक्ति को कुछ नहीं मिल पाता क्योंकि विविध प्रकार के होते हैं। विविध प्रकार के विषय विविध प्रकार का हमें सुनने को मिलता है, सुनकर ये महोत्सव हमें एक ऐसा चिन्तन देता है उन तीर्थंकर परमात्माओं की तरह चैतन्य की धारा हमारे भीतर धारावाहिक चलना चाहिए। एक विरक्ति की धारा, पृथक्त्व की धारा उसके भीतर चलती है। पंचकल्याण महोत्सव का यह संदेश सर्वमान्य होता है क्योंकि यह श्रमण संस्कृति का, दिगम्बर संस्कृति का सर्व महान महोत्सव है इसलिए हम केवल यहाँ कुछ दृश्यों को देखकर अथवा चित्त को प्रसन्न करके यदि लौट जाते हैं और केवल यह प्रशंसा के पुल बांधे कि आवास व्यवस्था बहुत अच्छी थी, भोजन व्यवस्था बहुत अच्छी थी। तब पूछा जाए कि और क्या-क्या अच्छा था कि इससे अधिक और अच्छा क्या होता है। अरे! यह महोत्सव जिसमें सचमुच रत्नों के ढेर होते हैं, वे रत्न नहीं, जो 15 महीनों तक बरसते हैं, लेकिन वे रत्न जो उन मुक्त पुरुषों के भीतर रहते हैं और जिनके आनन्द को वे प्रतिसमय लेते रहते हैं। उनके जीवन से और उनकी चर्या से यदि हम अपने भीतर पड़ी हुई उस रत्नराशि को पहचान लेते तो सचमुच हम निहाल हो जाते। पूज्य गुरुदेव जैसे महापुरुष ने 45 वर्ष तक ये श्रम किया और इस युग को युगान्तर किया है, इस बात में सन्देह नहीं, कि जैनदर्शन का जो हृदय है वो बिल्कुल घटाटोप में था उसका हर सिद्धान्त मानो विकृत कर दिया था हमने, लेकिन गुरुदेव ने अपने मन से नहीं, लेकिन आगम चक्षु के द्वारा अपने ज्ञान चक्षु खोलकर, सारे सिद्धान्तों के सत्य रहस्य, वास्तविक रहस्य हमारे सामने रखें, और तब जैनदर्शन का हृदय खुला, जिनवाणी खुली ऐसा युग आया और उस युग का यदि हमने लाभ नहीं लिया तो सचमुच उन महापुरुष के प्रति हमें जो ऋण चुकाना चाहिए था, जो वसीयत वे हमको दे गए और उन्होंने उत्तराधिकार में रत्न हमको सँभलाएँ लेकिन कहना चाहिए कि हमने कंकरों की तरह उनको फेंक दिया और हमारा जीवन बिल्कुल निरर्थक चला गया। आज बहुत बड़ा उत्तरदायित्व इस कार्य को संभालने का हमारे पास है। महोत्सव में महामंगलमय तत्त्वज्ञान का जो कार्यक्रम है, मैं कुछ कहना चाहता हूँ आपसे कि तत्त्वज्ञान के जो कार्यक्रम हैं, वे कोई सामान्य कार्यक्रम नहीं होते, वे साक्षात् मोक्षमार्ग और मुक्ति के कार्यक्रम होते हैं ओर कम से कम यह पंचकल्याणक तो, इसमें कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है लेकिन हम लोग मनोरंजन प्रिय हुए और इन पंचकल्याणकों के वीतराग दृश्य और इसमें तत्त्वज्ञान और वीतराग वाणी सुनकर हम उस पर मनोरंजन का जो आवरण दे देते हैं, उससे सारा तत्त्वज्ञान नष्ट हो जाता है, इसलिए हम इन मंचों पर, कम से कम, ऐसे पवित्र मंच पर; पंचकल्याण का मंच कोई सामान्य मंच नहीं होता और हम इसमें यदि ऐसे हल्के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं, तो हम बहुत बड़ा अपराध करते हैं हमें भीड़ नहीं जुटाना है, लेकिन लोगों को कुछ अद्भुत और अपूर्व देना है, जो गुरुदेव हमको दे गए। मुझे इस बात से काफी कष्ट होता है कि हम लोग विचारों में इतने सस्ते हो गए हैं कि केवल भीड़ जुटाना ही हमको पसन्द है, लेकिन कोई ठोस चीज और अपूर्व चीज देना कि जिससे सचमुच ये भव नहीं, लेकिन भवान्तर साफ हो जाते हैं स्वच्छ हो जाते हैं और मुक्ति की गारंटी मिल जाती है, ऐसे अद्भुत मणिमुक्ता हम यदि लोगों को देते हैं तो हमारे महोत्सव सफल समझने चाहिए और सफल होते हैं। इसलिए हम मनोरंजनप्रिय न हों। लोगों में यदि मनोरंजन की आदत पड़ जाएगी तो वे तत्त्वज्ञान में भी मनोरंजन चाहेंगे। तत्त्वज्ञान को भी तब सुनेंगे जब बीच-बीच में उनका मनोरंजन होता रहे। जैसे एक छोटे बालक को खिलाया जाता है और माँ उसको कई प्रकार से कई नाम से ले-लेकर देख वो चिड़िया आईं, देख वो तोता आया, इसतरह कर-करके उसका पेट भरती है। हम भी यदि मनोरंजन चाहते हैं, 45 वर्ष के बाद भी और हम यह कहते हैं कि हमने उत्कृष्ट तत्त्वज्ञान सुना है। क्या बाकी रह गया है तत्त्वज्ञान में। हमारे दशलक्षण के कार्यक्रम कितने ऊँचे होते हैं। और हम आज दशलक्षण के कार्यक्रम देखते हैं तो जिनमें कितनी हल्की बातें होती हैं कि जो सचमुच देखने लायक भी नहीं, इसलिए मैं तो आपसे अनुरोध करता हूँ आयोजकों से भी अनुरोध करता हूँ कि हमें एक आदर्श स्थापित करना चाहिए कार्यक्रमों का। लोगों को सुनने का तरीका सीखना चाहिए क्योंकि यदि हम कहानी और मनोरंजनों के द्वारा लोगों को अभ्यस्त कर देते हैं, तो असली तत्त्वज्ञान हम नहीं दे सकते। ये मैं आपको सुनिश्चित रूप से कहता हूँ। ये कटु नहीं मैं बहुत मधुर बात आपको कह रहा हूँ और आगम सम्मत बात आपको कहता हूँ क्योंकि यह गम्भीर है सारी बात। और उस गम्भीर बात में हम केवल एक हल्के फुलके मन की प्रसन्नता के लिए बातें करते हैं तो हम बहुत कुछ खोकर जाते हैं और कोई उपलब्धि हमको नहीं होगी। इसलिए मेरा निवेदन है कि यहाँ हम बहुत गम्भीर और सच्ची बाते करेंगे, साक्षात् दृश्य भी हमारे सामने मुक्ति के प्रेरक आयेंगे और भगवान नेमिनाथ के साथ, हम उनके चरणों के साथ अपने चरणों को रखकर मोक्षमार्ग की तरफ बढ़ें ऐसा मेरा स्वयं से भी और आप सभी से अनुरोध है।
एक काम तो पूरा हो गया, अभी दूसरा काम बाकी है, अभी तीसरा काम बाकी है। एक काम तो हो गया मुमुक्षु मंडल तो बन गया, अब स्वाध्याय भवन बनाना है। उसके बाद कोई धर्मशाला बनाना है, उसके बाद कोई जिनालय और मंदिर बनाना है, अथवा कोई बंगला बनाना है। ये एक काम तो हो गया अभी दूसरे काम बहुत बाकी है। इसप्रकार ये जो बाकी है, ये जो शेष रहने वाली चीजें हैं, इनका अन्त होता नहीं है, इसलिए कर्ता कर्म वाले जीव का सिर हमेशा भारी रहता है वो पागल है। आज का जो व्यक्ति है तो सुनने में तात्त्विक है और भीतर से, अन्तर में जो उसका अंतरात्मा है वो पूरा का पूरा व्यवसायिक है, उसको 24 घण्टे व्यवसाय के विकल्प चलते हैं। अर्थोपार्जन हो गया है और ये जो कार्य, ये धर्म में भी घुस गया है। धर्म में भी उसने नानारूप बदल लिए हैं। नाना प्रकार की बातें यहाँ धर्म में भी होने लगी हैं, मुमुक्षु लोगों में भी होने लगी हैं। मुमुक्षु लोग भी जहाँ आवश्यकता नहीं है, वहाँ पंचकल्याण करायेंगे, जहाँ आवश्यकता नहीं है, वहाँ विधान करायेंगे, जहाँ आवश्यकता नहीं है, वहाँ पर निर्माण करायेंगे और निर्माण कराकर लोगों से करोड़ों रुपया किसी भी तरह से, जिस किसी तरह उनको बहका कर उनको फुसला कर, उनको अपने व्यक्तित्व से, उनको अपने प्रभाव से आकर्षित करके पैसा इकट्ठा करेंगे और वो निर्माण करायेंगे। और सारा जीवन इस तरह बर्बाद हो जायेगा। इसलिए हमको गुरुदेव के मार्ग पर चलना चाहिए और गुरुदेव का मार्ग निश्चय और व्यवहार दोनों की दृष्टि से कितना उच्च कोटि का रहा है। यदि वो तस्वीर हमारे सामने रहेगी तो निश्चित रूप में हम सम्यग्दर्शन आत्मानुभूति और मुक्ति के पात्र हो सकेंगे, जिसके दिमाग में केवल व्यवसाय घूमता रहता है 24 घण्टे, जिसके दिमाग में केवल घर के काम घूमते रहते हैं, जगत के काम घूमते रहते हैं, किसी को देता किसी से लेता और किसी से बदला लेना किसी को सहयोग करना इत्यादि इत्यादि नाना प्रकार के काम जो हम किया करते हैं, धर्म के नाम पर भी, धर्म में भी आज यह एक समारोह की जो संस्कृति चली है, समारोह ही समारोह एक विधान भी हम कराते हैं, तो उसमें इन्द्र इन्द्राणी के बिना काम ही नहीं चलता है। यह कहाँ लिखा है कि कोई विधान हो तो इसमें इन्द्र और इन्द्राणी बनायी जाएं, लेकिन हम पंचकल्याण की तरह से उसमें भी इन्द्र और इन्द्राणी बनकर पूजा करेंगे। हम सदा मनुष्य रहकर पूरा कर ही नहीं सकते और इसमें 10-20 हजार रुपया, लाख रुपया दो लाख रुपया दे देंगे लेकिन इन्द्र और इन्द्राणी हम बनेंगे और इन्द्र और इन्द्राणी बनने की रंचमात्र भी तमीज नहीं है, थोड़ा भी। इन्द्र तो सम्यग्दृष्टि होता है, हमको सम्यग्दर्शन अथवा आगे यदि हम ऐसा बन भी गए तो जो काम इन्द्र करता है, आत्मानुभव करता है, तो काम हम करने के लिए तैयार हैं? लेकिन सारा माथा बिल्कुल बिगड़ गया है, ये कोरे समारोह बन गए हैं। इसलिए इनसे वास्तव में कोई लाभ होता नहीं है। आज तो यह चल गया है न कि जहाँ तीन दिन का विधान, वहीं नाम लेने के लिए तीन दिन का शिविर। काम तो विधान में होता है, सारा का सारा। उसमें जुट जाते हैं, रंग-बिरंगा, ऐसा रंग-बिरंगा कि उसको कोई भला आदमी तो देख ही नहीं सके। और दोनों जोड़े से बैठेंगे, जोड़े से यहाँ भी जोड़ा। आदमी के पास उसकी पत्नी बैठी है, और दोनों जोड़े से पूजा कर रहे हैं क्योंकि उनको जोड़े से ही मोक्ष जाना है। ये कौन से तरीके हैं, जो स्त्री से पुरुष को छुआकर बैठाया जाये विधान में और उस धार्मिक कार्य में। ये कौनसी बुद्धिमानी है? ये कौन से शास्त्र में लिखा है, कहाँ लिखा है ये ? क्यों नहीं हम ऐसी व्यवस्था करते कि जिसमें पूरे शील और ब्रम्हचर्य की रक्षा हो, ऐसा हम क्यों नहीं करते लेकिन नहीं करते हैं। क्योंकि हमको भी पैसे की, हमको तो पैसा ही पैसा दिखता है विधान में भी। किसने कितना दिया है, उनकी बोलियाँ, उनकी घोषणाएँ, ये सारे के सारे काम होते हैं। इतनी विकृति आज जैन संस्कृति में आई है कि शायद दूसरी संस्कृतियों में इतनी विकृति आई नहीं होगी, जितनी हम लोगों में आई है हमारे त्यागी तपस्वियों में आई है इतनी विकृति शायद दूसरी में नहीं आई क्योंकि जैन संस्कृति सबसे उज्जवल है वो प्रांजल है शुद्ध है इसलिए इसमें थोड़ा भी दाग बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस तरह यदि हम इन सब बातों पर, व्यवहार पर भी यदि हम भली प्रकार अच्छी प्रकार सोच पाते हैं तो उनका एक सुन्दर रूप बतायेंगे। बहुत सुन्दर रूप। सात्त्विक रूप, सात्त्विकता रखिए अधिक से अधिक कि हम जो कुछ भी कार्य करते हैं उनमें सात्त्विकता हो। यह न हो कि वो स्त्री सारे आभूषण पहनकर बैठी है, और सबसे महँगी साड़ी जो 5 हजार रुपये की है वो पहन कर पूजा कर रही है, ये कौनसी पूजा है? अरे जब इन्द्र और इन्द्राणी बने तो तब देख लेना ? कैसे पूजा करते हैं, इन्द्र और इन्द्राणी। लेकिन यहाँ तो तुम मनुष्य हो इसलिए मनुष्य बनकर ही ये पूजाएँ करो और दूसरा दूसरे प्रकार से जो करता है, उसमें केवल अहं पैदा होता है और उस अहं में सारी की सारी पूजा गल जाती है, समाप्त हो जाते हैं, सारे भाव समाप्त हो जाते हैं और हम कहते हैं बड़ा आनंद आया, कौनसा आनंद आया, जरा बताना, थोड़ा सा तो बताओ कौन सा आनन्द आया ? कोई आनन्द नहीं आता है और सब नष्ट चला जाता है, व्यर्थ चला जाता है, इसलिए मैं तो आपको ये बोलता हूँ कि हमारा जो समाज है, वो अधिक से अधिक व्यवहार में शुद्ध और परिशुद्ध हो उसकी सारी क्रियाएँ सात्त्विक हो, उसके विचार भी सात्त्विक हो, उसका आचार भी सात्त्विक हो, उसका आहार भी सात्त्विक हो, ये सारी सात्त्विकता यदि उसके भीतर आती है तो वो मोक्षमार्ग के लायक हो सकता है।