आवरण होते हुए भी, निरावरण स्वभाव है।
बंधन अरे पर्याय में, निर्बंध शाश्वत भाव है।। 1।।
ओट कण की दृष्टि पर, पर्वत नजर आता नहीं।
तिनके से ढक सकता नहीं, शाश्वत प्रगट गिरिराज है ।। 2 ।।
त्यों आवरण है मोह का, रे मात्र तेरी दृष्टि पर।
शाश्वत प्रकाशमयी सु चिन्मय, परम निर्मल भाव है ।। 3 ।।
अब मोड़कर निज दृष्टि, अन्तर माँहि ध्रुव प्रभुता लखो।
मैं सदा सुख सम्पन्न प्रभु, अनुभव करो, श्रद्धा करो ।। 4 ।।
मैं मूढ़ पामर दीन दुखिया, भ्रान्ति अब तज दीजिए।
त्रैलोक्य की प्रभुता अरे, निज में ही तुम लख लीजिए ।। 5 ।।
Author- श्रद्धेय ब्र. रवीन्द्रजी ‘आत्मन्’