(तर्ज - शोभे समवशरण सुखकार…)
नाथ तेरी महिमा अगम अपार-2 ।। टेक।।
पूर्ण वीतरागी होकर भी, करो परम उपकार ।
झलकें ज्ञेय ज्ञान में तदपि, आत्मलीन अविकार ।।1।।
वीर्य अनन्त प्रगट भयो स्वामी, सौम्य रूप सुखकार ।
नि:कषाय रह कर्म विनाशे, जीते सर्व विकार ।।2।।
शोभा तीन लोक में अनुपम, यद्यपि नहीं श्रृंगार ।
बाह्य विभूति लेश न राखी, तो भी अपरम्पार ।।3।।
समवशरण की शोभा न्यारी, कह नहिं सकूँ लगार ।
द्वादश सभा मुग्ध हो सुनती, दिव्यध्वनि सुखकार ।।4।।
आत्मबोध पाकर भवि प्राणी, होते भव से पार ।
धन्य भयो प्रभु दर्शन पायो, शाश्वत मंगलकार ।।5।।
द्रव्य नमन हो, भाव नमन हो, सहज नमन अविकार ।
प्रभु तुम सम निज में रम जाऊँ, रहूँ सु-जाननहार ।।6।।
Artist - ब्र. श्री रवीन्द्र जी ‘आत्मन्’