भगवती दास जी कृत नाटक पचीसी । Natak Pacchisi

अथ नाटकपचीसी लिख्यते

कर्म नाट नृत तोरके, भये जगत जिन देव ॥
नाम निरंजन पद लह्यो, करूं त्रिविधि तिहिं सेव ॥ १ ॥

कर्मनके नाटक नटत, जीव जगतके माहिं ॥
तिनके कछु लच्छन कहूं, जिन आगमकी छाहिं ॥ २ ॥

तीन लोक नाटक भवन, मोह नचावनहार ॥
नाचत है जिय स्वांगधर, करकर नृत्य अपार ॥ ३ ॥

नाचत है जिय जगतमें, नाना स्वांग वनाय ॥
देव नर्क तिरजंचमें, अरु मनुष्य गति आय ॥ ४ ॥

स्वांग धरै जव देवको, मानत है निज देव ॥
वही स्वांग नाचत रहै, ये अज्ञानकी टेव ॥ ५ ॥

औरनसों औरहि कहै, आप कहै हम देव ॥
गहिके स्वांग शरीरको, नाचत है स्वयमेव ॥६।।

भये नरकमें नारकी, लागे करन पुकार ॥
छेदन भेदन दुख सहै, यही नाच निरधार ॥ ७ ॥

मान आपको नारकी, त्राहि त्राहि नित होय ॥
यहै स्वांग निर्वाह है, भूलपरों मति कोय ॥ ८ ॥

नित निगोदके स्वांगकी, आदि न जानै जीव ॥
नाचत है चिरकालके, भव्य अभव्य सदीव ॥ ९ ॥

इत्तर नाम निगोद है, तहाँ बसत जे हंस ॥
ते सब स्वांगहि खेलकैं, बहुर #धरयो यह वंस ॥ १० ॥

उछरि उछरिकें गिरपरै, ते आवै इहि ठौर ॥
मिथ्यादृष्टि स्वभाव धर, यह स्वांग शिरमौर ॥ ११ ॥

कबहू पृथिवी कायमें, कबहू अग्नि स्वरूप ॥
कबहू पानी पौन ह्वै, नाचत स्वांग अनूप ॥ १२ ॥

वनस्पतीके भेद बहु, स्वास अठारह बार ॥
तामें नाच्यो जीव यह, घर घर जन्म अपार ॥ १३ ॥

विकलत्रयके स्वांगमें, नाचे चेतन राय ॥
उसीरूप ह्वै परणये, वरनें कैसें जाय ॥ १४ ॥
उपजे आय मनुष्यमें, धरै पँचेंद्री स्वांग ॥
अष्ट मदनि मातो रहै, मानो खाई भांग ॥ १५ ॥

पुण्य योग भूपति भये, पापयोग भये रंक |
सुख दुख आपहि मानिके, नाचत फिरे निशंक ॥ १६ ॥

नारि नपुंसक नर भये, नाना स्वांग रमाहिं ॥
चेतनसों परिचय नहीं, नाच नाच खिर जाहिं ॥ १७ ॥

ऐसे काल अनंत हुव, चेतन नाचत तोहि ॥
अजहूं आप संभारिये, सावधान किन ! होहि ॥ १८ ॥

सावधान जे जिय भये, ते पहुंचे शिव लोक ॥
नाचभाव सब त्यागके, विलसत सुखके थोक ॥ १९ ॥

नाचत हैं जग जीव जे, नाना स्वांग रमंत ॥
देखत हैं तिह नृत्यको, सुख अनंत विलसंत ॥ २० ॥

जो सुख देखत होत है, सो सुख नाचत नाहिं ॥
नाचनमें सब दुःख है, सुख निज़देखन माहिं ॥ २१ ॥

नाटक में सब नृत्य हैं, सारवस्तु कछु नाहिं ।।
ताहि विलोको कौन हैं, नाचन हारे माहिं ॥ २२ ॥

देखै ताको देखिये, जानै ताको जान ॥
जो तोको शिव चाहिये, तो ताको पहचान ॥ २३ ॥

प्रगट होत परमातमा, ज्ञान दृष्टिके देत ॥
लोकालोक प्रमान सव, छिन इकमें लखलेत ॥ २४ ॥

‘भैया’ नाटक कर्मतें, नाचत सब संसार ॥
नाटक तज न्यारे भये, ते पहुंचे भव पार ॥ २५ ॥

इति नाटक पचीसी

रचयिता: पंडित श्री भैया भगवतीदास जी
सोर्स: ब्रह्म विलास

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